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दीपावली महोत्सव
२००४
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ओढ़ कर जगमगाती हुई दीपमाला
लिए साथ में तारकों का उजाला
कहीं ढ़ूँढ़ने चाँद को आज निकली
अमावस में बहकी हुई साँवरी सी
गगन के अपरिमित से श्यामल पटल पर
बहुत भोला भाला सा बालक मचलकर
छिडकता मिटाता रहा रंग जगमग
दिखाता रहा कोई जादूगरी सी
अनगिन प्रदीपों की झिलमिल सी झीलें
अंधेरों की चौखट पे लटकी कंदीलें
लुटाती रहीं आस के स्वर्ण मोती
बिखरकर पिघलती हुई फुलझरी सी
सजाए हुए प्रीत के गीत मन में
औ' ढलकर किसी सप्तरंगी सपन में
उमंगें लिए आज आई दिवाली
धरा पर उतरती हुई एक परी सी
—अमित कुलश्रेष्ठ |
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ऐसा जलाएँ दीया
एक ऐसा
जलाएँ दीया आज हम
मावसी रात को पूनमी जो करे,
रोशनी का जो केवल दिखावा करें
उन सितारों की हमको
जरूरत नही
करने वालों ने
वादे किए हैं बहुत
किन्तु पूरा करेंगे यह वादा नही,
जिनके कन्धों से ताकत
बिदा ले गई
उन सहारों की हमको
जरूरत नहीं
यों समंदर में
पानी की सीमा नहीं
किन्तु पीने के काबिल नही बूँद भी,
जिनसे प्यासों को जीवन
नही मिल सके
उन फुहारों की हमको
जरूरत नहीं
कुछ बदलने से
मौसम खुशी तो मिली
चाहता हूँ यह मौसम न बदले कभी,
जिन के आने से बगिया में
रौनक न हो
उन बहारों की हमको
जरूरत नही
—डा. तपेश चतुर्वेदी
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