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जनगण के मन में
जनतंत्र की सोच को समर्पित कविताओं
का संकलन |
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जनगण के मन में जल पाया,
नहीं आस का दीपक
कैसे हम स्वाधीन देश जब
लगता हमको क्षेपक
हम में से
हर एक मानता
निज हित सबसे पहले.
नहीं देश-हित कभी साधता
कोई कुछ भी कह ले
कुछ घंटों 'मेरे देश की धरती'
फिर हो 'छैंया-छैंया'
वन काटे, पर्वत खोदे,
भारत माँ घायल भैया
किसको चिंता? यहाँ देश की?
सबको है निज हित की
सत्ता पा-
निज मूर्ति लगाकर,
भारत की दुर्गति की.
श्रद्धा, आस्था, निष्ठा बेचो
स्वार्थ साध लो अपना.
जाये भाड़ में
किसको चिंता
नेताजी का सपना
कौन हुआ आजाद?
भगत है कौन
देश का बोलो?
झंडा फहराने के पहले
निज मन जरा टटोलो
तंत्र न जन का
तो कैसा जनतंत्र
तनिक समझाओ?
प्रजा उपेक्षित
प्रजातंत्र में
क्यों कारण बतलाओ?
लोक तंत्र में
लोक मौन क्यों?
नेता क्यों वाचाल?
गण की चिंता तंत्र न करता
जनमत है लाचार
गए विदेशी,
आये स्वदेशी,
शासक मद में चूर.
सिर्फ मुनाफाखोरी करता
व्यापारी भरपूर
न्याय बेचते
जज-वकील मिल
शोषित- अब भी शोषित
दुर्योधनी प्रशासन में हो
सत्य किस तरह पोषित?
आज विचारें
कैसे देश हमारा साध्य बनेगा?
स्वार्थ नहीं सर्वार्थ
हमें हरदम आराध्य रहेगा.
-संजीव सलिल
२४ जनवरी २०११ |
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