अनुभूति में विवेक
ठाकुर की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
रूप तेरा
मैं बढ़ता ही जाऊँगा
बापू जब तुम रोए थे
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रूप तेरा
ब्रह्मांड, केन्द्र में वह सागर
शांत शीतल निर्मल सदा नवीन।
उसके तीरे कालिमा का संसार है
काली झाड़ियों का साम्राज्य प्रवीण।
उस सागर में पानी के
दो बड़े बुलबुले दिख पड़ते हैं।
मध्य में जिसके श्याम
और चहुं ओर गौरांगिनी राधा रहते हैं।
उसी के इर्द गिर्द कहीं
काली पर सुंदर लकीरें हैं।
एक टापू सुंदर उभार लिए
सागर के वक्षस्थल पर खड़ा है।
चलकर इस तीर से कुछ दूर
प्रवेश द्वार एक बड़ा है।
जिसमें से यदा कदा
अमृत धारा निकल रही है।
उस महानद के हृदय को चीरती जो
रेखा जा रही है
उसके किनारों पर अब स्थित हैं जो
वहाँ हमारी तुम्हारी नावें जा रही हैं।
सचमुच
अद्भुत है तुम्हारा रूप प्रिये
१० सितंबर २००४ |