अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में विवेक ठाकुर की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
रूप तेरा
मैं बढ़ता ही जाऊँगा
बापू जब तुम रोए थे

 

 

रूप तेरा

ब्रह्मांड, केन्द्र में वह सागर
शांत शीतल निर्मल सदा नवीन।
उसके तीरे कालिमा का संसार है
काली झाड़ियों का साम्राज्य प्रवीण।
उस सागर में पानी के
दो बड़े बुलबुले दिख पड़ते हैं।
मध्य में जिसके श्याम
और चहुं ओर गौरांगिनी राधा रहते हैं।
उसी के इर्द गिर्द कहीं
काली पर सुंदर लकीरें हैं।
एक टापू सुंदर उभार लिए
सागर के वक्षस्थल पर खड़ा है।
चलकर इस तीर से कुछ दूर
प्रवेश द्वार एक बड़ा है।
जिसमें से यदा कदा
अमृत धारा निकल रही है।
उस महानद के हृदय को चीरती जो
रेखा जा रही है
उसके किनारों पर अब स्थित हैं जो
वहाँ हमारी तुम्हारी नावें जा रही हैं।
सचमुच
अद्भुत है तुम्हारा रूप प्रिये

१० सितंबर २००४

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter