अनुभूति में स्मिता
दारशेतकर की
रचनाएँ
भीतर की आवाज़ें
बुढ़ापा दो दृष्टिकोण
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भीतर की आवाजें
उठाती हैं तून सी कभी-कभी
मन के भीतर की आवाज़ें
सोचने को करती मजबूर कभी-कभी
मन के भीतर की आवाज़ें
सुख-दुख की उधेड़बुन में
जीवन की हर उलझन में
क्या खोया मैंने और क्या पाया
सोचा जो
क्या वही हाथ आया
पूछती हैं कभी-कभी
मन के भीतर की आवाजें
सोचने को करती मजबूर कभी-कभी
मन के भीतर की आवाजें
अपेक्षाएँ कितनी होंगी पूरी
बढ़ जाएँगी अपनों से दूरी
माँगा केवल देना
छीना हमेशा जीना
मन को बेकल कर देती हैं कभी-कभी
मन के भीतर की आवाज़ें
सोचने को करती मजबूर कभी-कभी
मन के भीतर की आवाज़ें
अधिकारों की लड़ी लड़ाई
दायित्वों का भार न ढ़ोया
अपने हिस्से सब कुछ आए
हरदम माँगीं यही दुआएँ
धिक्कारती हैं कभी-कभी
मन के भीतर की आवाज़ें
सोचने को करती मजबूर कभी-कभी
मन के भीतर की आवाज़ें
समाज में रहें समाज नहीं बन पाए
बातें की बहुत काम न कोई कर पाए
अपनी कमियों को झुठलाया हरदम
दूसरों के दोष ही नज़र आए
मन का दर्पण दिखलाती हैं कभी-कभी
मन के भीतर की आवाज़ें
१ फरवरी २००६
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