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अनुभूति में राकेश कौशिक की रचनाएँ—

हास्य-व्यंग्य में—
अधूरा सपना
गुड़िया की पुड़िया
नटखट गोपाल
हथियार


संकलन में—
हिंदी के प्रति–अलख

 

गुड़िया की पुड़िया

सन्नाटा था दूर गाँव से खेतों में एक कुआँ था।
हार मान कर जीवन से एक वृद्ध वहाँ पर पहुँचा था।
लिए पुलिंदा अपमानों का तिरस्कार की गठरी भी।
बू.ढ़ा बदन बोझ भारी वही कुआँ उसकी मंज़िल थी।
कंपित–कदम एक बाहर एक कुएँ में लटकाया था।
तभी किसी ने दादाजी कहकर उसको चौंकाया था।
अकस्मात ही एक बालिका पास में उसके पहुँची थी।
दौड़ लगाकर आई उसकी छाती धुकधुक करती थी।
बोली दादाजी तुम भी कहाँ–कहाँ भटका करते।
घर में क्या होता रहता है उसका ध्यान नहीं रखते।
मान लिया मैं छोटी हूँ पर बुरा–भला पहचानती हूँ।
कौन–कौन कैसा है घर में एक–एक को जानती हूँ।
पापाजी और चाचाजी हर समय झगड़ते रहते हैं।
कभी ज़मीन वजह बनती कभी जायदाद पर लड़ते हैं।
मम्मी और चाचीजी में तो एक मिनट नहीं बनती है।
अम्माँ और आपको लेकर हरदम झगड़ा करती हैं।
कहते थे घर नहीं बटेगा मगर आपकी नहीं चली।
दो टुकड़े कर डाले घर के बीचों–बीच दीवार लगी।
रात में अब हम सोते हैं तुम दबे पाँव उठ जाते हो।
घर के बीच लगी दीवार को देख–देखकर रोते हो।
आज सुबह की बात है अम्माँ चाची से ऐसे कहतीं।
रोटी ग़र्म बना दे बेटी ठंडी मुझसे नहीं चबती।
चाचा बीच में बोल पड़े जैसा मिलता चुप से खा लो।
गरम–गरम खाना है तो फिर और कहीं डेरा डालो।
अम्माँ ने कहा बेटा क्या रोटी को भी तरसाओगे।
नौ महीने तक पेट में रखा यों ही फ़र्ज़ निभाओगे।
चाचा बोले ये अहसान भी आज उतारे देता हूँ।
बोलो नौ महीने का किराया अभी चुकाए देता हूँ।
बेबस और लाचार थीं अम्माँ फूट–फूट कर रोती थीं।
सारी कसर हो गई पूरी बार–बार यही कहती थीं।
वाह रे बेटा आज तो माँ की ममता का भी मोल किया।
तार–तार कर दिया मेरा दिल सौ टुकड़ों में तोड़ दिया।
रोते–रोते फिर अम्माजी पास आपके आईं थी।
जो कुछ हुआ आज घर में सब आपको भी बतलाई थीं।
सुनकर यहाँ चले आए सब बुरी–भली सह लेते हो।
आज एक मेरी सुन लो फिर देखूँगी क्या करते हो।
मतलब की दुनिया मैं भी सब सहती रही गुज़ार गई।
पर बात किराये की तो मेरे चीर कलेजे पार गई।
अब जीना धिक्कार मुझे इस दुनिया में नहीं रहना है।
आज ठान ली है मैंने इस कुएँ में गिर कर मरना है।
सुनते ही गुड़िया की बातें दादाजी के होश उड़े।
पैर कुएँ से बाहर आए झटके में हो गए खड़े।
आलिंगन में लिया उसे फिर चुंबन की बौछार करी।
बाँध सब्र का टूट गया और आँसू की बन गई लड़ी।
उँगली पकड़ चल दिए घर को लाठी को वहीं भूल गए।
गुड़िया उनकी लाठी बन गई सारे शिकवे दूर हुए।।

२४ अक्तूबर २००५

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