अनुभूति में
नम्रता शुक्ला
'क्रांति' की
रचनाएँ -
वो राहें
तुम फूलों सी कोमल हो
हाँ मुझे है प्रतीक्षा |
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वो राहें
दिन की रौशनी में, सूरज से बतियाते हुए
सीधी, टेढ़ी चलती
अपने प्रारब्ध को टटोलते हुए
कितनों को अपने गंतव्य पर पहुँचती हुई
मगर दूसरों के लिए बिछकर भी खुश थीं,
वो राहें।
रात की चाँदनी को भी प्रेम करना
उनकी आदतों से जैसे शामिल
और हर एक से सामंजस्य बैठाती हुई
पर अपने जीवन से पूर्णतः संतुष्ट थीं
वो राहें।
पर उन राहों को रौंदने वाले इंसान,
किसी और के लिए तो क्या
किसी इंसान के लिए भी
अगर कुछ कर सकते, तो
उसे उस संज्ञा से न नवाज़ा जाता,
जो 'स्वार्थी' थी।
और उनके परोपकार के सम्मान में भी
लिखता कोई कवि,
दो शब्द।
और ये युग भी अमर होने की चाह में खुश होता,
जितनी खुश थीं आज,
वो राहें।
१६ मार्च २००९
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