१. तिल के लड्डू
तिल के लड्डू माँग रही है
बिटिया रिक्शे वाले की।
कई दिनों की बीमारी ने
रिक्शा नहीं चलाया
इस कारण से मुट्ठी भर भी
दाना घर ना आया
किसी दियाथाने, सिरहाने
सिक्के कुछ मिल जाएँ
पूरी हो लें इससे शायद
बिटिया की इच्छाएं
हुई तलाशी चाचाजी के
बीड़ी वाले आले की
तिल के लड्डू माँग रही है
बिटिया रिक्शे वाले की।
बड़ी भोर से शाम ढले तक
सूरज लड़ा बेचारा
कोहरे का आतंक, दुबककर
सभी मोर्चे हारा
रोज पतंगो सी कट जाती
धरणी की इच्छाएँ
आसमान की क्रूर कथायें
किस किस को बतलाएँ
झोपड़ियों के ठीक सामने
बिल्डिंग पचपन माले की
तिल के लड्डू माँग रही है
बिटिया रिक्शे वाले की।
एक तरफ छप्पर छज्जे
छककर पकवान उड़ाते
बड़ी हवेली के जर्रे तक
खुरमा बतियां खाते
और इस तरफ खड़ी बेचारी
मजबूरी लाचारी
केंप लगाकर भाग्य बेचते
रोटी के व्यापारी
तन और मन की सौदे बाजी
कीमत लगी निवाले की
तिल के लड्डू मांग रही रही है
बिटिया रिक्शे वाले की।
-प्रभुदयाल श्रीवास्तव
४. किरणों की अगाध नदी
धरती कभी न छोड़े चलना
सूरज कभी न जलना
नवल मुकुल शाखों पर फूटें
पतझड़ कोई बाग न लूटे
दिनकर के धरती से रिश्ते
सदा हरे हों कभी न टूटें
प्रेम की साँसों युगों युगों तक
जीवन में ढलना
गिरें चढ़ें ऋतुओं के पारे
हालातों से हम ना हारें
कर्म रँगेगा जीवन सारे
उस से ही चमकेंगे तारे
सुबह गवाँ दी सोने में तो
शाम हाथ मलना
रात की छाती से ही बहता
स्वप्नों का दुधिया सोता है
अँधियारे के बाद सुबह हो
ऐसा कहाँ सदा होता है
काल की सदियों से आदत है
बगुले सा छलना
धरा धुंध से पटी हुई हो
तमस दृष्टि से सटी हुई हो
किरणों की अगाध नदी फिर
चाहे तट से कटी हुई हो
पौष माघ की सख्ती में
फागुन तुम पलना
-परमेश्वर फुँकवाल
६. दिनकर तेरी ज्योत
बढ़े
ज्यों दिन
तिल-तिल बढ़ते जाते
दिनकर तेरी ज्योत बढ़े
जाओ रानी
गठरी बाँधो
शीत ऋतु को किया इशारा
नियम तुम्हारा नित्य पुरातन
सदियाँ बीतीं तू नहीं हारा।
साँझ ढले कहीं और चल दिये
आ जाते हो
भोर पड़े
हर कोने से
सजी पतंगें
मुक्त गगन में लहराईं
तिल गुड की सोंधी मिठास
रिश्तों में अपनापन लाई
युवा उमंगें बढ़ीं सौ गुनी
ज्यों ज्यों ऊपर
डोर चढ़े
मकर प्रवेश
तुम्हारा सूरज
भाग्य कर्म का है लेखा
जोड़ घटा कर शेष बचा जो
कहलाए जीवन रेखा
बढ़ता चल मन आरोही
पग नए शिखर पर
आज पड़े
कल्पना रामानी
८. मकर राशि के सूर्य
मकर राषि के सूर्य आज तो
लगते हैं लडडू गुड़-तिल के
इन्द्रधनुष के रंग बिखेरे
नभ में ढेरों-ढेर पतंगें
फिर मन में अंगड़ाई लेतीं
जागी ढेरों-ढेर उमंगें
उधर कहीं वीणाएं बजती
इधर बजे इकतारे दिल के
मतवाला-सा पवन घूमता
नाच रही खेतों में फसलें
जी करता है हम भी नाचें
गाएँ जोर-जोर से हँस लें
धीरे-धीरे उतर रहे हैं
ओढ़े हुए मौन के छिलके
- शशिकांत गीते
१०. सुरज देवता आये
सुरज देवता आये
जंगल-घाट सिहाये
धूप आरती हुई
गंध के पर्व हुए दिन
ओस-भिगोई
बिरछ-गाछ की साँसें कमसिन
हरी घास ने
इन्द्रधनुष हैं उमग बिछाये
बर्फ पिघलने लगी
नदी-झरने भी लौटे
हटा दिये किरणों ने
अपने धुंध-मुखौटे
भौरों ने हैं
गीत फागुनी दिन-भर गाये
पीली चूनर ओढ़
हवा ने रंग बिखेरे
व्यापे घर-घर
सरसों के रँग-रँगे उजेरे
ऋतु फगुनाई
बूढ़े बरगद भी बौराये
--कुमार रवीन्द्र
१२. मुस्काए सूरज
बादलों की धुंध में मुस्काए सूरज
खोल गगन के द्वार
धरा पर आए
गुनगुनाए धूप
आए स्वेटर सा आराम
अब तो भैया मस्ती में हों
अपने सारे काम
बाँध गठरिया आलस भागे
ट्रेन-टिकट कटाए
देखो
बादलों की धुंध में
शरमाए
अधमुंदे नयनों को खोले
सोया सोया गाँव
किरणें द्वार द्वार पर डोलें
नंगे नंगे पाँव
मधुर मधुर मुस्काती अम्मा
गुड़ का पाग पकाए
हौले
बादलों की धुंध में
कुछ गाए
--रचना श्रीवास्तव
१४. सर्द मौसम की
कहानी
सर्द रातों में लिखी है
अथक श्रम की नव कहानी
कृषक राजा कह रहा है
सुन रही है अवनि रानी
सर्द मौसम की कहानी
आवृत हो मकर पथ पर
’नित्य’ तेजस बादलों में
ध्येय ज्यों लिपटा हुआ हो
कर्म के अंतस पलों में
किन्तु खेतों में फसल सब
मांगती है उष्ण पानी
सर्द मौसम की कहानी
उल्लसित उड़ती पतंगे
नील नभ पर अनिल में
बंधा डोरी से समय की
जीव जीवन अखिल में
पर्वतों की चोटियों पर
बर्फ़ की चादर सुहानी
सर्द मौसम की कहानी
कृषक राजा कह रहा है
सुन रही है अवनि रानी
सर्द मौसम की कहानी
-श्रीकांत मिश्र कांत
१६. बालहठ
संक्रांति के शुभ अवसर पर
माँ मुझको स्नान करा दो
गंगा तट पर हम जायेंगे
थोडा दर्शन पा जायेंगे
पहले तो स्नान करेंगे फिर
तिल का लड्डू खायेंगे
असहाय निर्बल लोंगो में
मुझसे खिचड़ी दान करा दो
कल कल सा जो जल बहता है
निर्मल मन मेरा कहता है
जीवन की धरा सा अविरल
हरपल चलता ही रहता है
पावन और पवित्र है संगम
मुझको अमृतपान करा दो
रंग-बिरंगी उड़े पतंगे
मेरे मन में भरे उमंगें
जी करता है मै उड़ जाऊँ
नील गगन में इनके संगे
कैसे मै तुमको समझाऊँ
मुझे पतंगे, डोर दिला दो
-कृष्णकुमार किशन
१८. सूरज ने खोले नयन
कोर
हट गया आवरण कोहरे का
सूरज ने खोले नयन कोर
नीड़ में दुबके बैठे आकुल
भोर हुई तो चहके खगकुल
खुले झरोखे हवा की सनसन
आकर तन में भरती सिहरन
कमल सरोवर पर अलि-राग
काँव-काँव कहीं करते काग
नव उमंग, मन में हलचल
हर्षित हैं तरु-पल्लव विभोर
संक्रांति मनाते हैं हिलमिल
खाते हैं आज सभी गुड़-तिल
सबके हैं हृदय मगन-मगन
खुशबू से महके घर-आँगन
भरता धरती का नवल कलस
अमृत लगता गन्ने का रस
आहट बसंत की चौखट पर
कृषकों के मन लेते हिलोर
है नीलगगन पर रंग छाया
मौसम पतंग का फिर आया
उड़तीं फरफर रुमालों सी
मंझा लिपटी है बालों सी
झूम-झूमकर, इठला कर
जीत-हार की होड़ लगा कर
ऊपर जाकर उड़तीं नभ पर
छत-मुँडेर हर जगह शोर
-शन्नो अग्रवाल |
२. समय
उड़ चला
समय उड़ चला सर्द हवा सा
मन के आसमान का सूरज
देता मगर दिलासा
सपनों पर से हटा कुहासा
रेंग लिये धरती पर कितना
अब अम्बर से जुड़ने दो
पतंग सरीखी रंग बिरंगी
आशाओं को उड़ने दो
कागज से भी कोमल हैं पर
उलझ ना जाएँ जरा सा
नई उमंगो का माँझा अब
अपने हाथ मे आने दो
पर फैलाए आस का पंछी
छत-मुंडेर पर गाने दो
हर्ष भरे नयनों से देखो
रीता घट भी लगे भरा सा
-संध्या सिंह
३. गूँगा सूरज
चलते-चलते गूँगा सूरज
क्षण भर तल्ख़ तल्ख़ शब्दों में
जाने क्या क्या आज लिख गया
श्यामपट्ट पर शाम ढले।
किसी पेड़ की
दुखद मौत पर
कोई चिड़िया सिसक रही है
प्यासे प्रश्नों
के उत्तर में
नदी मौन है झिझक रही है
धूप छांव की फटी पिछौरी
ओढ़े ये अनमने मौसम
आए सूनेपन को छलने
किंतु स्वयं ही गए छले।
जले चिराग़ों की
बस्ती में
घुस आईं जंगली आँधियाँ
खड़ी कर गईं
कब्रगाह में
रोशन लम्हों की समाधियाँ
किसी सिसकती लौ के आँसू से
जब रचे गए काजल गृह
अंधकार उद्घाटन करने
रोशनियों के गाँव चले।
ठहरे हुए समय को
जब से
बारूदों ने नब्ज़ छुआ है
मौन हवा के
कटे हाथ से
रिस रिस कर के खून चुआ है
जिस्म नोच कर आसमान का
एक लोथड़ा लिए चोंच में
उतर रहे हैं गिद्ध
पसरते सन्नाटों की छाँव तले।
-रामानुज त्रिपाठी
५. रे सूरज तू चलते
रहना
रात अमा ने बाँधे घेरे
निशितारों ने डाले डेरे
उदयाचल के खोल झरोखे
सूरज तू तो जलते रहना
कलश ज्योत के भरते रहना
अम्बर की गलियों में कब से
राहू-केतु घूम रहे
अँधियारे की चादर ओढ़े
काले मेघा झूम रहे
किरणों की थामे कंदीलें
नभ गँगा में तरते रहना
ज्योतिर्मय तू चलते रहना
युगों- युगों के तापस तुम संग
ताप तपस्या मैं तप लूँगी
माघ-पोष की ठिठुरन बैरिन
आस तेरी में मैं सह लूँगी
जानूँ तुम फाल्गुन के आते
भेजोगे वासन्ती गहना
तू जाने, तुझसे क्या कहना
दूर क्षितिज पर रेखाओं ने
ओढ़ी है सतरंगी चूनर
उड़ी पतंगें मनुहारों की
शाख –शाख ने बाँधे झूमर
छू लेना पर्वत का मस्तक
धीर धरा का धरते रहना
रे सूरज तू चलते रहना !!!!!
-शशि पाधा
७. धूप धूप गाने के
कुहरे को ओढ़ने
बिछाने के दिन आए
दिन आए
धूप धूप गाने के
शाखों ने झूमकर बुने
किरणों के गीत कुनकुने
देहों को
बाँसुरी बनाने के
दिन आए
धूप धूप गाने के
छुअनें सब तितलियाँ हुईं
खुल के हँसती छुई मुई
सुधियों की
औस में नहाने के
दिन आए
धूप धूप गाने के
--हरीश निगम
९. सूरज के घोड़े
सूरज से भी बढ़े चढ़े हैं
सूरज के घोड़े
रथ के आगे सजे खड़े है
सूरज के घोड़े
लो सूरज के
हाथों से वल्गाएँ छूट गईं
बेलगाम हो गए सभी सीमाएँ टूट गईं
किसको है अब होश कि इन
सातों के मुख मोड़े
इनकी टापों
की दहशत है दसों दिशाओं में
बदहवास ये चलें कि है सनसनी हवाओं में
अजब थरथरी उधर भक्त जन
खड़े हाथ जोड़े
जाने क्या
रौंदे क्या कुचले इनकी मनमानी
लगता है अब तो सिर तक आ जाएगा पानी
आनेवाला कल शायद इनके
तिलिस्म तोड़े
--सत्यनारायण
११. नभ में उमंगें !
लहराईं नभ में उमंगें उमंगें
पतंगें पतंगें पतंगें पतंगें !
गागर की ठीकर से
चमकाए एड़ी
चली आई छत पे
किरन दौड़ी दौड़ी
सलोनी-सी आँखों में
सपने ही सपने
करे क्या हुई है
उमर ही निगोड़ी
हँसें नख से शिख तक तरंगें तरंगें !
न अंबुआ में अब तक
उगी बौर-कोंपल
न टेसू के मन में
कहीं कोई हलचल
खिली तो खिली बस
इसी तन में लाली
हिली तो छमक-छम
इसी पाँव पायल
जिया गीत गूँजें हिया में मृदंगें !
--अश्विनी कुमार विष्णु
१३. सूरज के ढाबे पर
सूरज के ढाबे पर फिर से
दहकी है तंदूरी आग
मौसम आज परोसे मक्के
की रोटी सरसों का साग
इसका सादापन
प्यारे पकवानों पर भारी
मिट्टी सी है इसकी खुशबू, गुड़ से है यारी
जीभ हलों की इसको खाकर और तेज होती
बर्फीले खेतों को मक्खन-सा करके बोती
इसीलिए शायद मक्खन का
दिल से इसके अनुराग
रोज काल से
पेंच लड़ाकर ये जीता करता
धूप में माँझा तन का मंझा मुश्किल से कटता
मन-पतंग ने बाँध लिया है माटी से बंधन
बोझ हटा कल की लालच का छूती नील गगन
महक रहे हैं इसी स्वाद से गाँव,
खेत, घर, आँगन, बाग
धीरे धीरे सर्दी जाएगी गर्मी आएगी
बर्गर की कैलोरी तन में जमती ही जाएगी
कितने दिन तक मानव ऐसे कूड़ा खाएगा
इक दिन सूरज मॉलों में भी ढाबा खुलवाएगा
उस दिन जाड़ा खुद ले लगा
इस दुनिया से चिर बैराग
--धर्मेन्द्र कुमार सिंह सज्जन
१५. शीत से कँपती धरा
शीत से कँपती धरा की
ओढ़नी है धूप
कोहरे में छिप न पाये
सूर्य का शुभ रूप
सियासत की आँधियों में उड़ाएँ सच की पतंग
बाँध जोता और माँझा, हवाओं से छेड़ जंग
उत्तरायण की अँगीठी में बढ़े फिर ताप-
आस आँगन का बदल रवि-रश्मियाँ दें रंग
स्वार्थ-कचरा फटक-फेंके
कोशिशों का सूप
मुँडेरे श्रम-काग बैठे सफलता को टेर
न्याय-गृह में देर कर पाये न अब अंधेर
लोक पर हावी नहीं हो सेवकों का तंत्र-
रजक-लांछित सिया वन जाए न अबकी बेर
झोपड़ी में तम न हो
ना रौशनी में भूप
पड़ोसी दिखला न पाए अब कभी भी आँख
शौर्य बाली- स्वार्थ रावण दबाले निज काँख
क्रौच को कोई न शर अब कभी पाये वेध-
आसमां को नाप ले नव हौसलों का पांख
समेटे बाधाएँ अपनी
कोख में अब कूप
-आचार्य संजीव सलिल
१७. साँसों की वीणा
उषा की अरुणिमा में
ऊँचाई माप रहे
संध्या की लाली में
गहराई झाँक रहे
जीवन भर सूरज सा
जलते ही जाना है
धरती के दोहन में
धीरता को ढूढिये
अम्बर के दूषण में
शीलता को खोजिये
नदियों के कल-कल से
गति का अनुमान करे
पर्वत के शिखरों से
उन्नति का ध्यान धरे
अनुभव की शाला में
पढ़ते ही जाना है
जग के उपहासों से
मन में मत व्रीड़ा हो
अधरों पर हास लिये
अन्तस की पीड़ा हो
नित नूतन भावों का
अभिनव शृंगार करे
जीवन की प्यासों में
आशा का नीर भरे
साँसों की वीणा को
कसते ही जाना है
--अनिल वर्मा
कार्यशाला- २०
१६ अप्रैल
२०१२
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