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१-
सुनें समाचार बंधु सुनें
समाचार, बंधु
राजा के
घर में है
हर दिन त्योहार, बंधु
सुनें समाचार, बंधु
विपदाएँ सारी ही
परजा के भाग बदीं
राजा का दोष नहीं
नदियाँ हैं कीच-लदीं
चढ़ा प्रजा के
सिर पर
कर्ज़े का भार, बंधु
सुनें समाचार, बंधु
रामराज रहा सिर्फ
पुरखों के किस्से में
आया वनवास सदा
सीता के हिस्से में
लक्ष्मण जा बसे
-खबर -हैं
सागर-पार, बंधु
सुनें समाचार, बंधु
शहज़ादा चतुर बड़ा
गली-गाँव घूम रहा
सबके घर भरें-पुरें
उसने हर जगह कहा
जहाँ गया
वहीं सभी
उजड़े घर-बार, बंधु
सुनें समाचार, बंधु
--कुमार रवीन्द्र
३- समाचार-पत्र-तक-नहीं-आया
अरे अभी
समाचार-पत्र तक नही आया
तनिक और सोने दो।
धुआँ-धार साँस लिए
कानो मे शोर भरे
लुटा -पिटा चुका –बुझा
देर रात लौटा था
पौ फटने तक ठहरो
कुछ उजास होने दो।
बबुआ की खाँसी मे
रात भर नही सोया
मुनिया के रिश्ते की
बात भी चलानी है
अभी बहुत समय पडा
करवट ले लेने दो।
रोज सुबह पलकों से
इन्द्रधनुष झर जाते
रोटी का डिब्बा ले
बस पर चढ जाता हूँ
पल भर तो इन आँखों में
गुलाब बोने दो।
-भारतेन्दु मिश्र
(नई दिल्ली)
५- अखबारों में समाचार है
अखबारों में समाचार है
उल्लू बैठा डार-डार है
देश दिखाई देता दुखिया
लूट सके जो वो है सुखिया
लाचारी में शीश झुकाए
गुमसुम दिखे मुल्क का मुखिया
चुने हुए राजा-रानी से
प्रजातंत्र ही शर्मसार है
एक समय था गुल्ली-डंडा
खेल बना अब चोखा धंधा
रहो खेलते मनमानी से
जब तक गले पड़े न फंदा
राजनीति के खिलाड़ियों से
खेल स्वयं ही गया हार है
विकीलीक्स का नया खुलासा
सुनकर होती बड़ी निराशा
चौसर भले बिछी हो अपनी
पश्चिम फेंक रहा है पासा
शायद इसीलिए दिखती अब
लोकतंत्र की मुड़ी धार है
-ओमप्रकाश तिवारी
(मुंबई)
६- समाचार है
समाचार है
अच्छा मौसम
आने वाला है
भीमसेन सा
पंचम सुर में
गाने वाला है
इन्द्रधनुष की
प्रत्यंचा फिर
गगन कस रहा
हरे भरे
जंगल में आकर
हिरन बस रहा
कोई
फूलों में आकर
बतियाने वाला है
प्यासे खेत
पठार
लोकरंगों में डूबे
रेत हुई
नदियों के
रूमानी मंसूबे
कोई देकर
अपना हाथ
छुड़ानेवाला है
साँस -साँस में
गंध गुलाबी
हवा बह रही
तोड़ रहीं
छत इच्छाएं
दीवार ढह रही
भटकन में
भी कोई
राह बतानेवाला है
मन केरल की
मृगनयनी
आँखों में खोया
थका हुआ
चेहरा सागर
लहरों ने धोया
कोई काट
चिकोटी हमें
सताने वाला है
-जयकृष्ण राय तुषार
(इलाहाबाद)
९- समाचार है
समाचार है आज मंच से
रोटी बोलेगी
भरे पेट के भेद सभी
श्रीमुख से खोलेगी
भीतर माल सतह से तह तक
भरा ठसाठस है
तिनका भर भी रख पाने को
नहीं जगह अब है
भानुमती का अजब पिटारा
पेट बना डाला
सच्चाई ईमान सद विचारों को
खा डाला
आज पते की बात हवा
कण कण में घोलेगी
खाने और अधिक खाने की
होड़ मची कैसी
सतयुग त्रेता द्वापर में भी
नहीं दिखी वैसी
लगता है कि आसमान
धरती को पा लेगा
अपनी निष्ठुर बाहों में
सपूर्ण समा लेगा
रोटी अब भी मन ही मन
क्या अंसुअन रो लेगी?
नदी दौड़्ती जाती है
सागर से मिलने को
डाल डाल पर कलियाँ
दिखतीं उत्सुक खिलने को
परम पिता से मिलने को
कण कण मतवाला है
आँखों पर क्यों इंसानों ने
परदा डाला है?
भ्रमित आत्मा भ्रम के
जंगल जंगल डोलेगी
-प्रभु दयाल
(छिंदवाड़ा)
११- हर जगह व्यापार तारी
क्या करें हम बात करके
मन पे धन का बोझ थोपे
हर जगह व्यापार तारी
सत्य और ईमानदारी
के शेयर सब
पिट चुके हैं,
झूठ और षड्यंत्र अब
किश्तों में बँट कर
बिक रहे हैं
हर कोई सिक्का हुआ है,
माल का हिस्सा हुआ है
बाज़ के डैने
कबूतर तक पहुँच कर
रुक गए हैं,
आदमी इतने सरल हैं
खुद में ही
उलझे हुए हैं
आँख मूँदे चल रहे सब
जानते हैं छल रहे सब
वार्ता फिर भी है जारी
हर जगह व्यापार तारी
जनता हूँ ...
तुम नहीं लिख पाओगे
उसकी उदासी,
तुम समझ भी
पाए हो क्या बेकली
उसकी ज़रा सी ?
उसके मन की सुगबुगाहट
और मन की थरथराहट
लिख सको तो
यह ही लिख दो
हम बहुत कुछ
खो रहे हैं
आरियों की घरघराहट
सुन के पर्वत
रो रहे हैं
पर समाचारों में आया ...
सांसदों ने पौध रोपे
पर्वतों पर बर्फ बारी
हर जगह व्यापार तारी
-वीनस केसरी
(इलाहाबाद)
१४- खबर छपी अखबारों में
साहित्यिक गतिविधियाँ सारी
हुई लुप्त अंधियारों में
हत्या और बलात्-कर्म की
खबर छपी अखबारों मे
तानाशाही और मनमानी
चौथा खम्भा करता है
छँठे हुए इन पढ़े लिखों से
तन्त्र प्रजा का डरता है
तूती की आवाज़ दब गई
कर्कश ढोल-नगाड़ो में
कोकिल के मीठे सुर केवल
डाली तक ही सीमित है
गंगा जी की पावन धारा
मैली सी है-दूषित है
काग सुनाते बेढंगे स्वर
आँगन और चौबारों में
समाचार हैं घिसे-पिटे से
विज्ञापन से भरे पृष्ठ हैं
रोज-रोज वो ही छाये हैं
जो दुनिया में महाभ्रष्ट हैं
नाच रही है नग्न नर्तकी
सड़क और गलियारों में
-रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"
(खटीमा, उत्तराखंड, भारत)
१६- बस इतना सा समाचार है
घूरे पर बैठा बच्चा
खाने को कुछ भी बीन रहा है
लगता है बिधना से लड़कर
अपना जीवन छीन रहा है
क्या इसको भी जीना कहते
आता मन में यह विचार है
बस इतना सा समाचार है
अपने बालों के झुरमुट से
जाने क्या वो खींच रही है
बूढ़ी दादी गिने झुर्रियाँ
गले मसूढे भींच रही है
जीने की इच्छा तो मृत है
मरने तक ज़िंदगी भार है
बस इतना सा समाचार है
बिटिया की शादी सर पर है
कैसे बेड़ा पार लगेगा
कुछ दहेज़ तो देना होगा
वरना सब बेकार लगेगा
रिश्तेदार कसेंगे ताने
अपनी बिटिया बनी भार है
बस इतना सा समाचार है
अब की बार फसल अच्छी हो
तो कुछ घर में काम कराऊँ
टपक रही झोपडी इसे भी
नए प्लास्टिक से ढंकवाऊँ
कई दिनों से खांस रहा हूँ
छोटी बिटिया को बुखार है
बस इतना सा समाचार है
शेषधर तिवारी
(इलाहाबाद)
१७- यही आज का समाचार है
उठापटक के खेले चलते
हुआ अखाड़ा सभागार है
यही आज का समाचार है
दिन विपदा के परजा भुगते
शाहों के घर बजें बधावे
रामराज घर-घर व्यापेगा-
रहे खोखले उनके दावे
टका सेर के खाजे का
परजा को अब भी इंतज़ार है
यही आज का समाचार है
ठूँठ-हुए पीपल पर बैठी
गौरइया के पंख जले हैं
खबर सुर्ख़ियों में है आई-
बड़के राजा बड़े भले हैं
उनके पाले गीधों ने
उत्पात मचाया द्वार-द्वार है
यही आज का समाचार है
नौटंकी में लँगड़ी नटिनी
राज्यलक्ष्मी बनी रात कल
कोख धरा की सूनी-बंजर
फटा हुआ है माँ का आँचल
इन्द्रप्रस्थ की अप्सराओं के
चेहरों पर अद्भुत निखार है
यही आज का समाचार है
-कुमार रवीन्द्र
कार्यशाला-
१५
३० मई
२०११
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२--बिलकुल-ताज़ा-समाचार-है
सुबह सुबह का
बिलकुल ताज़ा समाचार है
चढ़ा शहर को
जाति धर्म वाला बुखार है
इसके उसके हाथों का
झुनझुना रहे हैं
लोग हवा में
मंदिर मस्जिद बना रहे हैं
एक लड़ाई अपने से ही
आर पार है
सुबह सुबह का
बिलकुल ताज़ा समाचार है
रोज़ी रोटी में भी
बस अगड़ा पिछड़ा है
उंच नींच का या
आरक्षण का झगडा है
इसकी टोपी
उसका आँचल तार तार है
सुबह सुबह का
बिलकुल ताज़ा समाचार है
जाति धर्म दोनों की
जननी है महंगाई
इधर कुआं है
उधर कुएं से गहरी खाई
आँखों आँखों पर
सपनों का बहुत भार है
सुबह सुबह का
बिलकुल ताज़ा समाचार है
अखबारों में
ख़ास आदमी का चेहरा है
आम आदमी
बस अँधा गूंगा बहरा है
सुख वो कैदी है
जो जन्मों से फरार है
सुबह सुबह का
बिलकुल ताज़ा समाचार है
दृश्यों को कर दिया
आँसुओं ने ही खारा
अफ़वाहों की आग
झुलसता जंगल सारा
सिर्फ धुआँ ही पीती
पेड़ों की कतार है
सुबह सुबह का
बिलकुल ताज़ा समाचार है
-यश मालवीय
(इलाहाबाद)
४-
समाचार है
बैठ मुड़ेरे चिड़िया चहके
समाचार है
सोप-क्रीम से जवां दिख रही
दुष्प्रचार है
बिन खोले- अख़बार जान लो,
कुछ अच्छा, कुछ बुरा मान लो
फर्ज़ भुला, अधिकार माँगना-
यदि न मिले तो जिद्द ठान लो
मुख्य शीर्षक अनाचार है
और दूसरा दुराचार है
सफे-सफे पर कदाचार है-
बना हाशिया सदाचार है
पैठ घरों में टी. वी. दहके
मन निसार है
अब भी धूप खिल रही उज्जवल
श्यामल बादल, बरखा निर्मल
वनचर-नभचर करते क्रंदन-
रोते पर्वत, सिसके जंगल
घर-घर में फैला बजार है
अवगुन का गाहक हजार है
नहीं सत्य का चाहक कोई-
श्रम सिक्के का बिका चार है
मस्ती, मौज-मजे का वाहक
असरदार है
लाज-हया अब तलक लेश है
चुका नहीं सब, बहुत शेष है
मत निराश हो बढ़े चलो रे-
कोशिश अब करनी विशेष है
अलस्सुबह शीतल बयार है
खिलता मनहर हरसिंगार है
मन दर्पण की धूल हटायें-
चेहरे-चेहरे पर निखार है
एक साथ मिल मुष्टि बाँधकर
संकल्पित करना प्रहार है
-संजीव सलिल
(जबलपुर)
७--अब-तक-का-यह-समाचार-है
अब तक
का यह समाचार है
आने वाला कल उधार है
ख़त्म
हो गई संचित पूँजी
घर में बाकी भाँग न भूँजी
पापा को कह कर के मूज़ी
लड़का बाइक पर
सवार है
बेटी
बड़ी हो गई कैसे
लिप्टस के बिरवा की जैसे
रहे जोड़ते पैसे - पैसे
लाखों में वर की
पुकार है
जीवन
में आ गई सुनामी
जकड़ गई है नई ग़ुलामी
घर के ज़ेवर की नीलामी
करता, टीवी का
प्रचार है
चौराहे
पर चर्चा है जी
किसका कितना खर्चा है जी
सबने बाँटा पर्चा है जी
लोकतंत्र का
चमत्कार है
सब
अपने में व्यस्त हुये हैं
किसी नशे में मस्त हुये हैं
सत्ता के विश्वस्त हुये हैं
सूनी वीरों की
मज़ार है
-अमित
( इलाहाबाद )
८- सुनो!-सुनो!-ये-समाचार-है
सूखे पर्वत घटा बिरानी
मौसम भी लाचार है
सुनो ! सुनो ! ये समाचार है
सड़क ओढ़
पगडंडी सोए
उस पर सत्ता काँटे बोए
ज़ख़्मी आँचल
सपने खोए
ममता सिसके आँसू रोए
दिन निकालकर घूँघट घूमे
रात बिकी बाजार है
सुनो ! सुनो ! ये समाचार है
शब्द खेलते गुल्ली डंडा
कलम सिसकती रोती है
सच जब घायल
हो जाता है
रूह दर्द में खोती है
अंधा बहरा हुआ न्याय जब
सुनता कौन गुहार है
सुनो ! सुनो ! ये समाचार है
रचना श्रीवास्तव
(डलास यू.एस.)
१०--समाचार-अद्भुत-उपवन-के
समाचार
अद्भुत उपवन के
अब बर्बादी
करे मुनादी
संसाधन सीमित
सड़ जाने दो
किंतु करेगा
बंदर ही वितरित
नियम अनूठे हैं
मानव-वन के
प्रेम-रोग अब
लाइलाज
किंचित भी नहीं रहा
नई दवा ने
आगे बढ़कर
सबका दर्द सहा
पल-पल बदल रहे रंग
तन मन के
नौकर धन की
निज इच्छा से
अब है बुद्धि बनी
कर्म राम के
लेकिन लंका
देखो हुई धनी
बदल रहे हैं
स्वप्न लड़कपन के
-धर्मेन्द्र कुमार सिंह
(बरमाना, बिलासपुर)
१२- क्या कहे सुलेखा
किससे अब
क्या कहे सुलेखा !
खनन माफ़िया
मिलकर लूटें
जल औ' जंगल
नित-नित टूटें
मेट रहे
कुदरत का लेखा !
बोली 'छविया'
धरा-दबोचा
नेता-मालिक
सबने नोंचा
समाचार
यह सबने देखा !
दुस्साहस-
क्रशरों का बढ़ता
चट्टानों से
चूना झड़ता
टूट रही
है जीवन रेखा !
अवनीश सिंह चौहान
(मुरादाबाद)
१३- समाचार है
समाचार है
अच्छा मौसम आने वाला है
समाचार है
फिर से होने लगा उजाला है
धूप चटकती, इतराती है
छाँव थकी है, सुस्ताती है
तारकोल की महक उडी है
फुलमतिया भी वहीँ खड़ी है
सड़क किनारे
साडी वाला पलना डाला है
दौड़े खूब कचूमर निकला
दफ्तर दफ्तर भागे अगला
चाय पकौड़े दाना, पानी,
टेबल, कुर्सी सब मनमानी
खड़ा द्वार पर
जैसे कोई फेरी वाला है
फिर से छीने गए निवाले
सब के सब थे तकने वाले
आस उगी है ये बेहतर है
शायद उसका मन पत्थर है
या फिर वह
बाहर से गोरा भीतर काला है
-राणा प्रताप सिंह
(जम्मू)
१५- बस इतना सा समाचार है
जितना अधिक पचाया जिसने
उतनी ही छोटी डकार है
बस इतना सा समाचार है
निर्धन देश धनी रखवाले
भाई चाचा बीवी साले
सबने मिलकर डाके डाले
शेष बचा सो राम हवाले
फिर भी साँस ले रहा अब तक
कोई दैवी चमत्कार है
बस इतना सा समाचार है
चादर कितनी फटी पुरानी
पैबन्दों में खींचा-तानी
लाठी की चलती मनमानी
हैं तटस्थ सब ज्ञानी-ध्यानी
जितना ऊँचा घूर, दूर तक
उतनी मुर्ग़े की पुकार है
बस इतना सा समाचार है
पढ़े लिखे सब फेल हो गये
कोल्हू के से बैल हो गये
चमचा, मक्खन तेल हो गये
समीकरण बेमेल हो गये
तिकड़म की कमन्द पर चढ़कर
सिद्ध-जुआरी किला-पार है
जन्तर-मन्तर टोटका टोना
बाँधा घर का कोना-कोना
सोने के बिस्तर पर सोना
जेल-कचेहरी से क्या होना
करे अदालत जब तक निर्णय
धन-कुनबा सब सिन्धु-पार है
मन को ढाढस लाख बधाऊँ
चमकीले सपने दिखलाऊँ
परी देश की कथा सुनाऊँ
घिसी वीर-गाथायें गाऊँ
किस खम्भे पर करूँ भरोसा
सब पर दीमक की कतार है
-अमित
(इलाहाबाद)
१८- अखबारों के भीतर
दादा जी की आँखें बूढ़ी होकर भी
अखबारों के भीतर गड़ती जाती हैं
समाचार में निहित भाव से हिलमिल कर
अंतरमन में जाने क्या बतियाती हैं
एक जमाना ऐसा था जब
खबर खुशनुमा आती थी
सुबह-सवेरे चाय की चुस्की
ज्ञान सुधा भर जाती थी
लेकिन आज समय है बे-कल
खबरों पर रफ्तार की दंगल
सेक्स, ग्लैमर, औ' खून-खराबा
खबर गई बस इतने में ढल
पैसों में बिकती है पाई जाती है
न्यूज रूम में खबर बनाई जाती है
शब्दों के व्यवहार हैं रूखे
समाचार हैं एड सरीखे
मालिक संपादक बन बैठे
कोई भला क्या इनसे सीखे
जो थे कभी ज्ञान की कुंजी
हावी वहाँ आज है पूँजी
सरस्वती पर लक्ष्मी भारी
माल-मुनाफे में सब धूँजी
खबरों से बेरूखी दिखाई जाती है
सिर्फ लाभ की बीन बजाई जाती है
नियति वर्मा
(इंदौर)
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