अनुभूति में
विश्वनाथ प्रसाद
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सीमाएँ
सुख |
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सीमाएँ
अक्सर मैं उन्हीं-उन्हीं मोर्चों पर छोड़ दिया जाता हूँ
जहाँ कोई नहीं होता
सिर्फ मेरी सीमाएँ होती हैं
एक कँटीला तार होता है
और उससे लटकती एक तख्ती
जिस पर लिखा होता है 'निषिद्ध क्षेत्र'
सीमांत की एक खूबसूरत सड़क
रेखाओं को तोड़ती
एक गहरे कटाव को जोड़ती हुई निकल जाती है
चेकपोस्ट पर एक सिपाही आता है
रोक कर वीजा माँगता है
बीच में एक कटा हुआ फासला होता है
जिसमें गर्जन करता है क्षुब्ध सागर
हवाएँ चीखती हैं
तट से बँधी हुई नावें डगमगाती-टकराती हैं
एक मल्लाह देखता रहता है
एक समुद्री चिड़िया उड़ती है
और उड़ती रहती है।
१५ जून २००१
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