अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में शलभ श्रीराम सिंह की रचनाएँ— 

गीतों में-
चंपा ने
जलकुंभी
ताल भर सूरज
दिन निकलता है
स्वतंत्र्योत्तर भारत


 

 

जलकुंभी

जल कुम्भी गंगा में बह आई है!
यहाँ भला कैसे रह पाएगी हाय,
बँधे हुए जल में जो रह आई है!
जल कुम्भी

नौका परछाई को तट माने है
हर उठती हुई लहर को अक्सर
हवा चले हिलता पोखर जाने है
अपनावे पर यह विश्वास
फिर न कभी आ पाऊंगी शायद--
घाट-घाट कह आई है!
जल कुम्भी

बरखा की बूँद हो कि शबनम हो
पानी की उथल-पुथल
चाहे कुछ ज़्यादा हो या थोड़ी-सी कम हो
कभी नहीं तकती आकाश
इससे भी कहीं अधिक सुख-दुख वह
अब तक की यात्रा में सह आई है!
जल कुम्भी

२० दिसंबर २०१०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter