सात्विक स्वाभिमान है
दुख से आँख चुराने की तो बात ही कहाँ
दुख ही तो मेरे वजूद का इम्तहान है
सुख स्वयमेव विरक्त रहा मुझसे जीवन भर
उसे रिझाने के मैंने भी यत्न कब किए
दुख ने स्नेह भाव से मुझको गले लगाया
मैंने तन-मन से उसके उपहार सब लिए
कर न सका हूँ सुविधा से सौदा, समझौता
अहं नहीं, यह मेरा सात्विक स्वाभिमान है
तुमने तो पहनाई थी फूलों की माला
तन का ताप लगा तो जलकर क्षार हो गई
साक़ी ने तो प्याले में मय ही ढाली थी
छूकर मेरे अधर, गरल की धार हो गई
मित्रों और शत्रुओं से भी मिली है, मगर
मेरी पीड़ा में मेरा भी अंशदान है
पनघट के रस-परिवेशों से दूर रहा हूँ
मरघट के शोकार्त-पवन से प्यार किया है
जब-जब मुझको लगा कि सावन मेहरबान है
मैंने फागुन में कुल कर्ज़ उतार दिया है
लीकों में तो बैल और कायर चलते हैं
मेरी राहों पर लागू मेरा विधान है
फटे चीथड़ों में पलता भविष्य पीढ़ी का
रेशम में मानव संस्कृति का शव लिपटा है
मीनारों पर पड़तीं प्रगति-सूर्य की किरणें
झोपड़ियों पर अवसादों की घोर घटा है
माना मुझे तृप्ति ने भी बहकाया जब तब
पर अभाव के सच का भी तो मुझे ज्ञान है
1 जुलाई 2006
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