अरे हरिण मन
अरे हरिण मन!
चल, चंदन वन
गूँज रहा शहनाई से!
नव सपनों की झील
भला क्यों थर्राई है आँखों में
आँचल कहाँ चाँद का अटका
है बादल की शाखों में
अरे हरिण मन!
नाच रहा क्यों
वंशीवट पुरवाई से!
बाँट न लेंगे दर्द कंटीले
जंगल के हरियल पत्ते
कोहरे की औकात है कितनी
सूरज को आकर ढक ले
अरे हरिण मन!
खेल रहा क्यों
केहरि की तरुणाई से!
जितने मन से चाल चला तू
उतनी ही दूरी तय की
सपनों से सपनों तक
उलझे-उलझे ही पूरी वय की
अरे हरिण मन!
भाग रहा तू
अपनी ही परछाँई से!
८ मार्च २०१० |