व्यस्त
कितनी पीड़ा
कितने दंशन मेरे नाम लिखे
इसे बताने की भी फुर्सत अपने पास नहीं।
जन्म मृत्यु
सा दुःखदाई है इतना जान गया।
आँखें हैं आँसू की बेटी यह भी मान गया।
पर सागर सी पीड़ा लेकर किसके द्वार चलूँ—
कोई तो अपना होगा ही यह अभिमान गया।
कितने सावन कितने भादों
मेरे द्वार बिके
इसे बताने की भी फुर्सत अपने पास नहीं।
हँसते अधर
डब डबी पलकें उनमें गीत पले।
सुख में गलबाँहें डाले थे दुख में मीत चले।
आता जाता सब कुछ देखा लेकिन व्यथा नहीं —
धीरज धवल हिमालय जैसा तिल तिल शीत गले।
कितने पतझर कितने दुर्दिन
मेरे साथ जगे
इसे बताने की भी फुर्सत अपने पास नहीं
तार–तार हो
गई जवानी ठठरी बहुत लड़ी।
रोम रोम मेरे जीवन का दुःख की अजर कड़ी।
पर लगता है अजित अधूरा विधि का भोग अभी
संघर्षों की साँस साँस पर नित नव चोट पड़ी।
कितनी आशा कितने सपने
मेरे कहाँ लुटे
इसे बताने की भी फुर्सत अपने पास नहीं।
थका हुआ हूँ
टूट चुका हूँ फिर भी झुका नहीं।
कितना कर्ज़ लिए आया था अब तक चुका नहीं।
सत्य ब्रह्म होगा योगी को मुझको दुःख दिखे—
सतत सनातन नित्य यही है अविरल रुका नहीं।
कितनी साँसें कितने जीवन
मेरे गए छले
इसे बताने की भी फुर्सत अपने पास नहीं।
९ अगस्त २००६
|