डूबती चकत्ते-सी शाम
डूबती चकत्ते-सी शाम,
और रहा रिरियाता मन।
कटे हुए पंख लिए चला गया पंछी
चुके हुए मौकों ने थोपा संवेदन,
कब तक हम ढोते ही रहे और बोझा
उखड़ रही साँसें जीकर परिवर्तन
छिटके हैं दिशा-दिशा मेघ
और रहा मुरझाता मन।
सैंकड़ों जुलूसों ने तोड़े
दरवाजे
रोज ही अमावस के दौर रहे खाली,
एक अकेलेपन ने जाने-अनजाने
चाही थी कभी कहीं पर सुबह निराली
धुनती ही जाती हर फाँस
और रहा बतियाता मन।
जर्जर आदर्श हो गए चौराहों पर
नई कहानी लेकर चली रामलीला,
बोझिल होकर सम्मुख आ रहा गुजारा,
रूप अनास्थाओं का कितना जहरीला,
उलझाते रहे सभी जाल
और रहा सुलझाता मन।
उम्मीदों की हर पल धीमी
हुंकारें,
ढुलते उच्छवासों को किस तरह सम्हालें,
इस अजीब मौसम में कसक रही यादें,
आखिरी समय में भी कितना भ्रम पालें,
कर रहा ठिठौली यह दौर
और रहा झुंझलाता मन।
२२ मार्च २०१० |