अनुभूति में
मैथिली शरण गुप्त की रचनाएँ-
गीतों में-
नर हो न
निराश करो मन को
दोनों ओर प्रेम पलता है
मनुष्यता
निरख सखी ये खंजन आए
शिशिर न फिर गिरि वन में
मुझे फूल मत मारो
प्रतिशोध |
|
शिशिर न फिर
गिरि वन में
शिशिर न फिर गिरि वन में
जितना माँगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में
कितना कंपन तुझे चाहिए ले मेरे इस तन में
सखी कह रही पांडुरता का क्या अभाव आनन में
वीर जमा दे नयन नीर यदि तू मानस भाजन में
तो मोती-सा मैं अकिंचना रक्खूँ उसको मन में
हँसी गई रो भी न सकूँ मैं अपने इस जीवन में
तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव भुवन में।
|