अनुभूति में
मदन
वात्स्यायन
की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
ऋतु संहार
दो बिहाग
नख-शिख
शुक्रतारा |
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ऋतु संहार
मेरे हाथ के
अबीर से यह अभी तक लाल है
और बेली की कौड़ियों की मेरी माला से
अभी तक सुगन्धित
तकियों के बीच में पड़ा यह लंबा बाल
प्रिये, तेरे वियोग में मुझे डँस रहा है।
वही शिद्दत, वही दुपहर, वही कछमछ, वही शोले---
और तब वही ठंडी बयार।
प्रियतमे बस तू नहीं है
और वह बात नहीं है।
न तहजीब से, न
शर्म से, न नजाकत से बँदे
उठे जो कोने से तो भरभराते भर गए बादर,
बरस पड़े---
गोया कि तेरे वासेत ओ प्रिये, हमारा प्यार हों।
तूने जो वह
हरसिंगार की माला टाँग दी थी,
उस का एक एक सूखा कण उड़ गया
कि हमारे सोने के घर की दीवार पर काँटी से
आज भी लटका है
मकड़ी की डोर सा पतला उसका तागा।
शरद और
फागुन-चैत के बीच
उफ, कैसी यह सन्-सी लग रही सर्दी
तरे ओंठों से जैसे कि निकला था,
'कल जाऊँगी।'
२९ अगस्त
२०११ |