बहरे पंच (हाइकु)
बहरे पंच,
अंधा है सरपंच,
गूँगा है मंच
हिंसक दौर,
शहरों में बसते
आदमखोर।
कैसी दलील!
जज तो हैं बहरे,
अंधे वकील।
ओर-न-छोर,
विकलांग श्रद्धा का
है कैसा दौर!
रोटी की खोज,
गाँव-के-गाँव यहाँ
मरते रोज़।
किस्त चुकाते
चुक गया जीवन,
चुके न खाते।
खेत न खाता,
बँधे सब रिश्तों में,
स्वार्थ का नाता।
अग्नि परीक्षा,
फिर भूमि-समाधि,
नारी-समीक्षा।
मुरली बजे,
मन में कहीं प्रीति
राधा-सी सजे।
बनी राधिका,
सचमुच थी मीरा
प्रेम-साधिका।
चुभते पिन,
बिताए न बीतते
दुःख के दिन।
घिरे हैं सभी
जीवन के व्यूह में,
अभिमन्यु-से।
जीवन बीता,
वन-वन भटके,
मिली न सीता।
था अभिनेता,
बना दिया भाग्य ने
मात्रा दर्शक।
२३ जून २००८
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