अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में शिखा वार्ष्णेय की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
चाँद और मेरी गाँठ
जाने क्यों
पर्दा धूप पे
पुरानी कमीज़
यही होता है रोज़

 

चाँद और मेरी गाँठ

उतरा है आज मन
चाँद की धरती पर
चाँदनी छिटक उठी है
रूह की खिड़की पर
ख़्वाबों के कदमो को
रखते हौले हौले
मन का पाखी
यूँ कानों में बोले
भर ले चाँदनी
पलकों की कटोरी में
उठा शशि और
भर ले झोली में
लेने दे ख़्वाबों को
खुल कर अंगडाई
चन्द्र धरातल पर
तू जो उतर आई
बस और थोड़ी सी हसरत,
और बस जज़्बा तनिक सा
थोड़ी सी और ख्वाहिश
फिर खिल उठना सपनो का
बस और दो कदम
रख सरगोशी से
कैसे ना होगा फिर
चाँद तेरी हथेली पे।
खूँटी पे टँगे सपने
सपनो पे रख दे चाँद
ना फिसले वहाँ से चंदा
लगा दे ऐसी गाँठ

२६ सितंबर २०११

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter