दस क्षणिकाएँ
१
स्वतंत्र होते हैं शब्द
हमारा चयन
तय करता है
उनका मोल मिलेगा
या
चुकाना पड़ेगा।
२
सच बोलने से पहले
नहीं खानी पड़ती आईने को
गीता की कसम।
३
चाहें जो उजाले
तो बन
कुनकुना सा
भोर का सूरज
बदल दे
अँधेरों के मिजाज।
४
उठे
लहर जो
दर्द के तालाब
फिर ना आए
जल्दी ठहराव
मौजों के उछाल में।
५
ना करो खारा
रहने दो पहले सी मीठी
मन की नदी को
कौन जाने
कब
फिर कोई रिश्ता
तैरने का मन बना ले।
६
बहक गए जो तेरे कदम
दृष्टा फ़नकारों के बहकावों में
उग आएँगे गहन अँधेरे
और ठहर जाएगी उन्नति
वैधव्य सी।
७
चलते हैं जो
स्वयं के गढ़े अनुपथ पर
वही छोड़ जाते हैं
औरों के दिल की ज़मीं पर
अपनी छाप।
८
समय का अंधड़
चाहे कितना हो आततायी
रौंदे फूलों की मुस्कान
या ढाहे वृक्षों का गुरूर पर
छीन नहीं पाता
दूब से
मुस्कुरा कर
लहराने का हुनर।
९
स्याह शब्दों में
पिरो के अपना सारा दर्द
छिपा देती हूँ डायरी की छाती में
और पलट के यही सोचती हूँ
वह कहाँ छिपाती होगी
इस दर्द के समंदर को।
१०
बरसों से होती रहीं
मेरी साँसें होम दैहिक यज्ञ वेदी में
ख़्वाहिशों की इध्म डाल
ढालती रही कराल अग्नि को
निपट धुँए में।
१ सितंबर २०१६
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