अनुभूति में डॉ. अंजना संधीर
की रचनाएँ-
कभी रुक कर ज़रूर देखना
चलो, फिर एक बार
ज़िंदगी अहसास का नाम है
हिमपात नहीं हिम का छिड़काव हुआ है |
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कभी रुक कर ज़रूर देखना
पतझड़ के सूखे पत्तों पर चलते हुए जो संगीत सुनाई
पड़ता है पत्तों की चरमराहट का ठीक वैसी ही धुनें सुनाई पड़ती हैं भारी
भरकम कपड़ों से लदे शरीर जब चलते हैं ध्यान से बिखरी हुई स्नो पर जो बन जाती
है बर्फ़ कहीं ढीली होती है ये बर्फ़ तो छपाक-छपाक की ध्वनि उपजती है
मानों बारिश के पानी में नहाता हुआ कोई बच्चा लगाता है छलाँगे जमा हुए पानी
में साइड़ वाक पर एक के बाद एक पड़ते कदमों से बर्फ़ के बीचों-बीच बन जाती
है पगडंडी सर से पाँव तक ढके, बस्ते लटकाए छोटे-छोटे बच्चे पगडंडी पर
चलते-चलते कूद पड़ते हैं पास पड़े बर्फ़ के ढेर पर तो चरवाहे की तरह ज़ोर से
हाँक लगाते हैं अभिभावक सीधे चलो, पगडंडी पर वरना फिसल जाओगे स्नो तो
नटखट बना देती है फिर ये बच्चे तो खुद नटखट होते हैं फिर ज़ोर-ज़ोर से
बर्फ़ को चरमराते हुए चलते हैं कभी गोले उठाते हैं फेंकते हैं फिसलते हैं
लेटते हैं और कभी कूदते हैं लाख हिदायतों के बावजूद चरमराहट, छपाक. . .श. .
.श. . . की मधुर लहरों के साथ-साथ दृश्य भी चलते हैं. . . संगीत और चित्रण
का कैसा संगम है ये स्नो कभी रुक कर ज़रूर देखना
1 अप्रैल 2007
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