अक्सर पा लेता
हूँ
अक्सर पा लेता हूँ
अपने अतीत की ठंडी राख में
एक चिंगारी
फिर खो जाता हूँ
उसके सौंदर्य में
बेसुध चैतन्य
सोचता ही रह जाता हूँ
कहाँ लिए चलूँ इस शक्ति आग को
दुनिया भी अजीब है
डरती है आग से
फिर तलाशती है आग
आधुनिक समाज में मनुष्य बनने की चाह
एक आग
चकचौन्ध सी
तुम्हें अच्छी लगी है
जरूरत लगी
बहुत बहुत धन्यवाद
पर जिज्ञासा तो रहती है न
उत्तरों के समुद्र में
प्रश्न कहाँ से आ रहे हैं
क्या हैं? किसके हैं?
तुम्हारे हों तो आऊँ
इसलिए कि आदमी के पास सवाल नहीं होने चाहिएँ
उत्तर जो है वो
संशय से दूर
जला सकता है वो प्रश्नों को
अपनी ही राख में छिपी हुई आग से।
१ अगस्त २०१६ |