अनुभूति में
संजय कुमार की रचनाएँ -
टोपी और जूता
तथाकथित
लाचारी
शोर
हाथ
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शोर
खुले दरवाजे से
बाहर का शोर
भीतर आ जाता है
बंद दरवाजे से
अपने भीतर का शोर
बाहर आ जाता है
आखिर कोई
किस तरह बचे ?
टोपी और
जूता
पहले लोग
टोपी उछाल कर ही
खुश हो लेते थे
आज
जूते बरसा कर भी
नाराज रहते हैं ।
तथाकथित
पढ़ लिख कर
हम होशियार बनते हैं
होशियार बन कर
सीख जाते हैं
बंटना और बांटना
फिर बङी होशियारी स
ेकहते हैं
हम एक हैं ।
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