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दो छोटी कविताएँ
आप अपना
आज मैंने आप अपना आईने में रख दिया है
और आईने की सतह को
पुरज़ोर स्वयं से ढक दिया है।
कुछ पुराने हर्फ़ -दो चार पन्ने
जिन्हें मैंने रात की कालिख बुझाकर
कभी लिखा था नयी आतिश जलाकर
आज उनकी आतिशी से रात को रौशन किया है।
आलों और दराजों से सब फाँसे खींची
यादों के तहखाने की साँसें भींची
दरवाज़े से दस्तक पोंछी
दीवारों के सायों को भी साफ़ किया है।
२१ जुलाई २००८
औरत
पेचीदा, उलझी हुई राहों का सफ़र है
कहीं बेवजह सहारा तो कहीं खौफ़नाक अकेलापन है
कभी सख्त रूढियों की दीवार से बाहर की लड़ाई है...
तो कभी घर की ही छत तले अस्तित्व की खोज है
समझौतों की बुनियाद पर खड़ा ये सारा जीवन
जैसे-जैसे अपने होने को घटाता है...
दुनिया की नज़रों में बड़ा होता जाता है
...कहीं मरियम तो कहीं देवी की महिमा का स्वरूप पाता है!
२१ जुलाई २००८ |