अनुभूति में प्रताप
सहगल की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
अहमस्मि
आज के संदर्भ में कल
दुरमुट
रामकली
हदों से बाहर भी होता है शब्द
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आज के संदर्भ
में कल
सड़कों पर घूमते हुये एकलव्य
खोज रहे हैं द्रोण को
और द्रोण न जाने किन अन्धी गुफ़ाओं में
या यूतोपियाई योजनाओं में
खोया हुआ खामोश है।
लाखों एकलव्य अपनी अपनी पीड़ा ढोते हुये
प्रकाश किरणों को पकड़ने का करते हैं प्रयास
और रोशनी के किसी भी स्तूप को नोच लेते हैं
मिनियेचर ताजमहलों को
अपने हाथों में दबाये
समुद्र पार के देशों की ओर करते हुये संकेत
शान्ति यात्राओं में लौट आते हैं
विस्फ़ोटक पदार्थ से भरे हुये हाथों सहित
मेरे देश के एकलव्य
द्रोण की खोज में
और द्रोण न जाने किन दिशाओं में खो गया है।
कल आज में परिवर्तित
होने वाला है कल
चक्राकार घूमता हुआ ग्लोब
चपटियाता हुआ भी चक्रबद्ध रहेगा
आलोक स्तंभ बुझ जायेगा
किसी मनु की प्रतीक्षा में
और मेरे देश के एकलव्यों को
तब भी जरूरत होगी द्रोण की
और द्रोण न जाने किन अतल गहराइयों में
सिमट जायेगा।
१४ फरवरी २०११ |