अनुभूति में
प्रो. महावीर सरन जैन की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
चिंतन और मैं
संवेदना और मैं |
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संवेदना और मैं
बुद्धि की राख के
हटते ही-
स्वप्निल पंखो के यान,
सहज,
सचेष्ट,
सजग हो उठते हैं।
मेरा 'मैं'-
दब जाता है।
अन्य बहुत से 'मैं'
जो कभी मेरे 'मैं' पर
साधिकार छाए थे
आत्मीय भाव से,
उभरने लगते हैं।
चित्रलिपि,
धीमे-धीमे,
चोंच खोलती है।
अनुभूति की यादों का दबाव
बढ़ने लगता है।
ओस की बूँदें
थरथराती-सी हैं।
फूलों को चूमने
तितलियाँ,
ललचाती-सी हैं।
कामनाएँ
तरल होने लगती हैं।
उन्मादिनी-सी हवा,
थिरकने लगती है।
मन-सूर्य की-
प्रखर प्रज्जवलता
बन्द शत दल को
बिखेर-बिखेर देती है।
अबाध्य,
मधु स्मृतियों का पीड़न।
तर्कों की तख्ती के नीचे,
सिसकता जीवन।
अस्तित्व के सागर में,
कराहती लहरें।
सब घेर लेती हैं।
सब लील जाती हैं।
कोलाहल के वात्याचक्रों से
जड़ता मिट जाती है।
रिक्तता भर जाती है।
व्यष्टि,
समष्टि,
'मैं' और 'तू'
सारे भेद मिट जाते हैं।
दौड़ में,
गति में,
सक्रियता में,
'मैं'-
स्मृतियों के रथ में-
घूमने वाला,
एक पहिया मात्र होता हूँ।
१६ मार्च २००९ |