केवल एक बात थी
कितनी आवृत्ति
विविध रूप में करके तुमसे कही
फिर भी हर क्षण
कह लेने के बाद
कहीं कुछ रह जाने की पीड़ा बहुत सही
उमग-उमग भावों की
सरिता यों अनचाहे
शब्द-कूल से परे सदा ही बही
सागर मेरे! फिर भी
इसकी सीमा-परिणति
सदा तुम्हीं ने भुज भर गही, गही।
२३ जून २००८