सड़कें
तुम्हारे और मेरे नाम की
न जाने कितनी ही सड़कें हैं
हमारे शहर में
नाम की तख्ती तो नहीं लटकती है
उन सड़कों पर
पर वहाँ से गुज़रो तो
हमारी बातें बयान करती हैं
बेमंज़िल ही सही
मगर उन सड़कों पर
तुम्हारे मेरे किस्से
हर दीवार पर नज़र आते हैं
अजीब सी बात है जो
हम न कायम रख सके
हमारी सड़कें अब तक
थाम के बैठी हैं
ऐसी ही एक सड़क से
आज होकर गुज़रा था मैं...
१५ फरवरी २०१७
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