सूरज का रथ
कुंठित पड़ी दिशाएँ
खंडित पड़ा गगन है।
तारों की खिड़कियों से
पत्थर बरस रहे हैं।।
सूरज का रथ विपथ हो
नभ में भटक रहा है।
टूटे हुए क्षितिज पर
दिन भर लटक रहा है।।
सूखा रहा है सावन
बादल बने हैं दुश्मन।
चंदा की रोशनी से
विषधर बरस रहे हैं।।
मेरी नहीं ये ऋतुएँ
मेरा नहीं यह उपवन।
हर फूल अजनबी है
निर्गंध है प्रभंजन।।
यह शीश नहीं मेरा
कंधे जो ढो रहे हैं।
ये अर्थ नहीं जिनको
अक्षर तरस रहे हैं।।
१० मार्च २००८
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