अनुभूति में अशोक आंद्रे की रचनाएँ—
छंदमुक्त में-
उनके पाँव
उम्मीद
दर्द
नदी
बाबा तथा जंगल |
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उम्मीद
जिस भूखंड से अभी
रथ निकला था सरपट
वहाँ पेड़ों के झुंड खड़े थे शांत,
नंगा कर रहे थे उन पेड़ों को
हवा के बगुले
मई के महीने में।
पोखर में वहीं,
मछली का शिशु
टटोलने लगता है माँ के शरीर को।
माँ देखती है आकाश
और समय दुबक जाता है झाड़ियों के पीछे
तभी चील के डैनों तले छिपा
शाम का धुँधलका
उसकी आँखों में छोड़ जाता है कुछ अन्धेरा ।
पीछे खड़ा बगुला चोंच में दबोचे
उसके शिशु की
देह और आत्मा के बीच के
शून्य को निगल जाता है
और माँ फिर से
टटोलने लगती अपने पेट को।
३ दिसंबर २०१२ |