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कूड़ा बीनते बच्चे

उन्हें हमेशा जल्दी रहती है
उनके पेट में चूहे कूदते हैं
और खून में दौड़ती है गिलहरी!
बड़े-बड़े डग भरते
चलते हैं वे तो
उनका ढीला-ढाला कुर्ता
तन जाता है फूलकर उनके पीछे
जैसे कि हो पाल कश्ती का!
बोरियों में टनन-टनन गाती हुई
रम की बोतलें
उनकी झुकी पीठ की रीढ़ से
कभी-कभी कहती हैं-
''कैसी हो", "कैसा है मंडी का हाल?"
बढ़ते-बढ़ते
चले जाते हैं वे
पाताल तक
और वहाँ लग्गी लगाकर
बैंगन तोड़ने वाले
बौनों के वास्ते
बना देते हैं
माचिस के खाली डिब्बों के
छोटे-छोटे कई घर
खुद तो वे कहीं नहीं रहते,
पर उन्हें पता है घर का मतलब!
वे देखते हैं कि अकसर
चींटे भी कूड़े के ठोंगों से पेड़ा खुरचकर
ले जाते हैं अपने घर!
ईश्वर अपना चश्मा पोंछता है
सिगरेट की पन्नी उनसे ही लेकर।

सागर में मोती
धुँए में पानी की बूँदें चमके
लगा जैसे सागर में मोती दमके
झुकती नहीं यह थोड़ी भी पलकें
धूप की थाली में हीरा भी खुद को परखे
यह पानी की बूँदें आए ज़रा नीचे
मैं भी तो खिलाऊँ खीर प्याला भरके
आकर नीचे पूछे मुझसे
सब छोड़ आएगी झट से
चलेगा जहीं कोई नाटक फिर से
स्वागत करेगें तेरा सब मिलके
होगा नहीं कुछ धरती पर जैसे,
एक तारा टूटे धीरे से
और मैं इच्छा करूँ दिल से
जाती मैं धरती पर जैसे-तैसे
पर चाहूँ आसमान तेरे जैसे!
नम आँखें
बोझिल नम आँखें तलाश रही आशियाना,
रात के अंधियारे में
ढूँढ-ढूँढ कर हैरान मेरी आशाओं के जुगनू
जहाँ देखूँ अनजाना आसमान,
ओस की बूँदों में
छिप-छिप कर
हवाएँ तेज़ हिलोरे दे रही
बरसात यों नहला रही
धूप यों सुखा रही,
पर रिमझिम-सा चमक रहा

७ जुलाई २००८

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