गृह प्रवेश
(आर्कीटेक्ट की नज़र से )
एक रोज़ अपने पुराने परिचित
पधारे मेरे कार्यालय में
आते ही चहककर बोले
फलां आर्कीटेक्ट कल ही मिले
उनसे बोला कि
बहुतेरे भवन बनवाते हैं
तो उन सबके गृह प्रवेश भी होते होंगे
फिर तो बड़ी मौज होगी
वाह भाई क्या खूब
उड़तीं होंगीं दावतें
वो आर्कीटेक्ट बोले
भाई कहो तो सच सच बताऊँ
भवन बनते-बनते
अपने और सेवाग्राहक के
सम्बन्ध हो जाते हैं इतने ख़राब
कि दावत देना तो दूर
निमंत्रण तक नहीं मिलता जनाब
और आप हैं कि
दावत की बात करतें हैं
यह सुनकर मैं भी हुआ चिंतित
और सीखा इक अनोखा सबक
कि चाहे जैसे भी हो
सम्बन्ध तो अच्छे ही बनाये रखने होंगें
पर आखिर कैसे
तभी गूँजी एक आवाज़
अपने अन्तःकरण से
जो भी काम करो
हमेशा ही अपना जान के करो
हमनें तत्काल ही इसे
अपना लिया
और मूल मंत्र बना लिया
तभी तो आज
हमें अपने हर एक
गृह प्रवेश की दावत
सदैव सुलभ होती आ रही है
सदैव ही सुलभ होती आ रही है
२३ नवंबर २००९
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