अनुभूति में
राजीव भरोल
की रचनाएँ—
अंजुमन में—
किसी सूरत में
जहाँ कहीं हमें दाने
तुम्हारी सोच के साँचे
मुहब्बत का कभी इज़हार
मेरी हिम्मत के पौधे को
मैं चाहता हूँ
मैंने चाहा था
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मेरी हिम्मत के
पौधे को
मेरी हिम्मत के पौधे को वो आकर सींच जाती
है,
अकेला जान कर मुझको, हवा तेवर दिखाती है।
दिया हाथों में कासा और सीने में दी ख़ुद्दारी,
बता ऐ जिंदगी ऐसे भला क्योंआ आज़माती है।
रहन रख आये आखिर हम उसूलों के सभी गहने,
करें क्याे भूख आकर रोज़ कुण्डी़ खटखटाती है।
ये पत्थर तोड़ते बच्चे ज़मीं से हैं जुड़े कितने,
पसीने में घुली मिटटी गले इनको लगाती है।
मुझे ही हो गई है तिश्नगगी से दोस्तीी वरना,
कोई बदली मेरी छत पर बरसने रोज़ आती है।
जहाँ में माँ की ममता से घनी और छांव क्या होगी,
मुझे पाला, मेरे बच्चों को भी लोरी सुनाती है।
२३ जनवरी
२०१२ |