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२२. ७. २०१३

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आँधियाँ चलने लगीं

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आँधियाँ
चलने लगीं हैं फिर हमारे गाँव

झर रहे खामोश
पत्ते उम्र से ज्यों छिन
ज़िंदगी के चार में से
रह गए दो दिन

खेत की किन क्यारियों में
खो गई है छाँव ?

खेत सूखे
जा रहे हैं, भूख से ज्यों देह
मोर बैठा ताकता है
रिक्त होते मेह

बोझ से जख्मी हुए
पगडंडियों के पाँव

रेत ने सब
लील डाली है नदी की धार,
भोगनी पड़ती गरीबों
को दुखों की मार

ठूँठ होती
टहनियों पर चील ढूँढे ठाँव

-रजनी मोरवाल

इस सप्ताह

गीतों में-

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रजनी मोरवाल

अंजुमन में-

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माधव कौशक

छंदमुक्त में-

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सुशील कुमार

घनाक्षरी में-

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कमलेश कुमार शुक्ल 'कमल'

पुनर्पाठ में-

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श्रीकृष्ण माखीजा


पिछले सप्ताह
१५ जुलाई २०१३ के अंक में

गीतों में-
योगेश समदर्शी

अंजुमन में-
वीरेन्द्र कुँवर

छंदमुक्त में-
कविता सुल्ह्यान

मुक्तक में-
मीना अग्रवाल

पुनर्पाठ में-
सुरेन्द्रनाथ तिवारी

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
 

 

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