झरे चमेली आधी रात
खुली हथेली आधी रात
खिड़की ने पुरवाई ले ली
गंधों ने अमराई ले ली
सौ के सौवें हिस्से में ही
फूलों ने अँगड़ाई ले ली
जंग लगे दरवाजे बोले
खुली हवेली आधी रात
धीरे धीरे बर्फ गली
ठहरी हुई नदी चली
सौ के सौवें हिस्से में ही
गहरी काली रात ढली
एक किरन आँगन में उतरी
खुलकर खेली आधी रात
वंशी का स्वर तेज हुआ
मौसम भी रंगरेज हुआ
सौ के सौंवें हिस्से में ही
सबकुछ मानीखेज हुआ
गरम दूध में डूब रही है
गुड़ की भेली आधी रात
जंगल में ही राह दिखी
घनी धूप में छाँह दिखी
सौ के सौंवें हिस्से में ही
एक चमकती बाँह दिखी
हम तो एक पहेली थे ही
एक पहेली आधी रात
-- सुधांशु उपाध्याय |