सूखकर काँटा हुई है
भील कन्या सी
नदी पद्मावती
ठूँठ से उतरी चिरैया
चुग रही है रेत
बुन रहा वन एक सन्नाटा
तैरते वातावरण में
संशयों के प्रेत
उबलते
जल में पड़ी है
सोन मछली हाँफती
जिंदगी है
आदि कवि की आँख से
हरती व्यथा
भूमि से हैं आज निर्वासित
जनक जननी आत्मजा
फेंकता है काल अपने जाल
काँपती असहाय सी
बूढ़ी शती
--देवव्रत जोशी |