बेटियाँ |
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भोर की उजली किरण-सी घर में आएँ बेटियाँ
साँझ की लाली लजीली बन के जाएँ बेटियाँ।
ये चिरैयों सी फुदकती, द्वार, देहरी, आँगने,
जो मिला चुगकर उसे ही चहचहाएँ बेटियाँ।
नाप लें अपनी उड़ानों में गगन की दूरियाँ
फड़फड़ाए पर न कह पाएँ व्यथाएँ बेटियाँ।
ये सरल मन की किताबें बाँच तो लेना ज़रा
प्राण में होंगी ध्वनित पावन ऋचाएँ बेटियाँ।
वार दें सर्वस्व अपना जो कुलों की आन पर
पुत्र कुल दीपक अगर तो हैं शिखाएँ बेटियाँ।
कीर्ति की उज्ज्वल पताका कम इन्हें मत आँकिये
दो कुलों को तारती ये तारिकाएँ बेटियाँ।
ये लिए तूफ़ान भी, इनमें अतल गहराइयाँ
आब मोती सी सजाएँ सीपिकाएँ बेटियाँ।
ज़िंदगी की धूप तीखी छाँह भी मुमकिन न हो
मानिए सच यों लगें शीतल हवाएँ बेटियाँ।
--बंशीधर अग्रवाल |
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इस सप्ताह
गीतों में-
अभिज्ञात
अंजुमन में-
विनोद तिवारी
छंद मुक्त में-
विद्या सागर जोशी
दोहों में-
बंशीधर अग्रवाल
पुनर्पाठ में-
देवेन्द्र रिणवा
पिछले सप्ताह
१३ जुलाई २००९ के अंक में
कदंब विशेषांक के
अवसर पर विशेष संकलन-
फूले फूल कदंब
जिसमें प्रस्तुत हैं बीस रचनाएँ कदंब के फूल को समर्पित-
अज्ञेय की दो रचनाएँ,
आओ देखो यह कदंब
का चित्र है,
एक कदंब का पेड़ था,
कदंब और ब्रज,
कदंब
का पेड़,
कदंब के पेड़ के पत्ते,
कदंब चौपदियाँ,
कहाँ गए कदंब,
कालिंदी के तट पर,
कुछ पारंपरिक
छंद,
खिले कदंब,
जब कदम्ब का
पेड़ देखता हूँ,
तरु कदंब,
नदी किनारे,
पुष्पों की वर्षा करें,
फूल कदंब (शशिपाधा),
फूले कदंब(नागार्जुन),
यह कदंब का पेड़,
वर्षा ऋतु में,
हे कदंब के वृक्ष
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