गाँव अब
लगते नहीं हैं
गाँव से!
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पनघटों में धूल
सूने खेत
घूमते अमराइयों में प्रेत,
आ रही लू, नीम वाली
छाँव से!
ठूँठ अपनापन झरे
मन-पात
कोयलों पर बाज की है घात,
धूप के हैं थरथराते
पाँव से!
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खाँसते
आँगन, हवा में टीस
कब्र में डूबे घुने आशीष,
लोग हैं हारे हुए हर
दाँव से।
--हरीश निगम |