जाड़े की दुपहर में
सीली दीवारों से सटी है धूप,
सायों से
अठखेलियाँ कर रही
बच्चों के हाथ से मैली
विभिन्न आकारों में कैद हुई
छोटी-छोटी उँगलियों से झाँकती है धूप,
कच्ची, गीली माटी
में झोपड़ी पर
पैबंद लगाती
ज़मीन पर मखमली कंबल बन जाती
खिड़की से छन-छन के आती
ठिठुरे हाथों को अलाव का ताप दे जाती है धूप,
आसमान से बिखरती,
ज़िंदगी की नौटंकी में
कभी राजा कभी रंक बनी है धूप,
सुख-दुख की परिभाषा में
मौन अभिव्यक्ति बनी है धूप,
सुबह को हौले से आती है
रात सब बटोर कर, चली जाती है ये धूप।
-रजनी भार्गव |