अभिव्यक्ति
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24. 9. 2007  

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धूप

जाड़े की दुपहर में
सीली दीवारों से सटी है धूप,

सायों से अठखेलियाँ कर रही
बच्चों के हाथ से मैली 
विभिन्न आकारों में कैद हुई
छोटी-छोटी उँगलियों से झाँकती है धूप,

कच्ची, गीली माटी में झोपड़ी पर
पैबंद लगाती
ज़मीन पर मखमली कंबल बन जाती 
खिड़की से छन-छन के आती
ठिठुरे हाथों को अलाव का ताप दे जाती है धूप,

आसमान से बिखरती, ज़िंदगी की नौटंकी में
कभी राजा कभी रंक बनी है धूप,
सुख-दुख की परिभाषा में
मौन अभिव्यक्ति बनी है धूप,
सुबह को हौले से आती है
रात सब बटोर कर, चली जाती है ये धूप।

-रजनी भार्गव

 

इस सप्ताह

देशांतर में-

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यू. एस. ए. से रजनी भार्गव
और

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अनिल प्रभा कुमार

कविताओं में-

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यदु जोशी 'गढ़देशी'
और

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राजेंद्र अविरल

नई हवा में-

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अजंता शर्मा

पिछले सप्ताह
(16 सितंबर 2007 के अंक में)

14 सितंबर हिंदी दिवस के अवसर पर 25 कविताओं का संकलन मातृभाषा के लिए

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
-|- सहयोग : दीपिका जोशी