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शिवाकांत मिश्र 'विद्रोही' के
 दो फागुनी गीत
 


गंध के हस्ताक्षर

भेजता ऋतुराज
किसलय-पत्र पर
इंद्रधनुषी रंग वाले
गंध के हस्ताक्षर!

झूमते हैं खेत
वन-उपवन
हवा की ताल पर
थिरकते
बंसवारियों के अधर पर
फिर वेणु के स्वर

विवश होकर
पंचशर की छुअन से
लग रहे उन्मत्त
सारी सृष्टि के ही चराचर!

आज नख-शिख
फिर प्रकृति के
अंग मदिराने लगे,
और निष्ठुर
पत्थरों तक
सुमन मुस्काने लगे

पिघलता है पुनः
कण-कण का ह्रदय
हर कहीं पर अब चतुर्दिक
फागुनी मनुहार पर!

 

  पगलाई-सी हवा

फागुन मन के
खोल किवाड़े नाग धरे
धुले-धुले उजले
आँचल में दाग धरे!

कथनी खोज रही कुटिया
फिर करनी की
इंद्रधनुष-सी देह
पूनमी रजनी की
मौसम के कपोल
जब पछुआ सहलाती
मत पूछो बातें
वासंती टहनी की

पगलाई-सी हवा
बिखेर रही अलकें
कण-कण, तृण-तृण में
अतुलित अनुराग भरे!

डोली चढ़कर धूप
चली गोरी-गोरी
गीत गुनगुने गाती
कर उर की चोरी
शीत खेलता
आँख-मिचौली अब ऋतु से
शिथिल नदी लहरों को
सुना रही लोरी

हाथ छुड़ाते मन से
लज्जा के बंधन
मतवाले मधुपों के
अधर पराग झरे!

अधर चढ़ी रंगों की
आज मेघ माला
दृग लगते सर्वस्व
होम के मखशाला,
महक उठी महुए से
चंपा की क्यारी
छलक उठा पलकों से
फिर रस का प्याला

वृद्धों के मन तक
कुछ ऐसे रंग चढ़े
जर्जर तन ने भी
यौवन के स्वांग भरे!

१५ फरवरी २०१०

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