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वर्षा महोत्सव

वर्षा मंगल
संकलन

सावन

झम-झम-झम-झम मेघ बरसते हैं सावन के
छम-छम-छम गिरती बूँदें तरुओं से छन के
चम-चम बिजली चमक रही रे उर में घन के
धम-धम दिन के तम में सपने जगते मन के

ऐसे पागल बादल बरसें नहीं धरा पर
जल फुहार बौछारें धारें गिरती झर-झर
उड़ते सोन-बलाक आर्द्र सुख से कर क्रंदन
घुमड़-घुमड़ फिर मेघ गगन में भरते गर्जन

वर्षा के प्रिय स्वर उर में बुनते सम्मोहन
प्रणयातुर शत कीट विहग करते सुख-गायन
मेघों का कोमल तम श्यामल तरुओं से छन
मन में भू की अलस लालसा भरता गोपन

रिमझिम-रिमझिम क्या कुछ कहते बूँदों के स्वर
रोम सिहर उठते, छूते वे भीतर अंतर
धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर
रज के कण-कण में तृण-तृण की पुलकावलि भर

पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन
आओ रे, सब मुझे घेर कर गाओ सावन
इंद्रधनुष के झूले में झूलें मिल सब जन
फिर-फिर आए जीवन में सावन मन-भावन

-सुमित्रानंदन पंत
1 सितंबर 2005

  

वर्षा गीत

बहुत दिनों से नहीं नहाए
धरती पेड़ बगीचे फूल
आँधी ने खेली थी होली
और लगाई सबको धूल।
नदियाँ नाले कुए सरोवर
सबको बहुत लगी थी प्यास
टुकुर-टुकुर सब देख रहे थे
प्रतिपल एक नज़र आकाश।
बादल ने तब भरी बाल्टी
सब पर पानी फेंक दिया
सबने अपनी प्यास बुझाई
जी भर पानी खूब पिया।
झूम-झूम कर मस्ती में फिर
पौधे खूब नहाए थे।
सारा कलुष मिटा कर अपना
फूले नहीं समाए थे।

बरसाती संगीत

ढम ढम ढम ढम ढम ढम
बादल ने फिर ढोल बजाए।
छम छम छम छम छम छम
बूँदों ने घुंघरू छनकाए।
हिला-हिला सर पेड़ पत्तियाँ
देने लगे है ताल,
नदियाँ नाले कुएँ सरोवर
झूम उठे तत्काल।
पीं पीं पीं पीं पीं पीं
झींगुर ने बंसी बजाई।
टर टर टर टर टर टर
मेंढ़क ने भी तान मिलाई।
थिरक उठे तब पाँव मोर के
और हुआ यह हाल,
सर पर अपने पैर उठा कर
भागा दूर अकाल।

-शरद तैलंग
1 सितंबर 2005

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