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वर्षा महोत्सव

वर्षा मंगल
संकलन

हिरना आँखें

हिरना आँखें झील-झील
गलियारे पिया असाढ़ में,
गलियारे की नीम, निमौली-
मारे पिया असाढ़ में।।

मेहँदी पहन रही पुरवाई
उतरी नदी पहाड़ों से
देख रहे हैं उड़ते बादल
हम अधखुले किवाड़ों से
आग लगाकर भाग रहे
आवारे पिया असाढ़ में।।

दूर कहीं बरसा है पानी
सोंधी गंध हवाओं में
सिर धुनती लोटेंगी लहरें
कल से इन्हीं दिशाओं में
रेत की मछली छू जाती
अनियारे पिया असाढ़ में।।

दिन भर देते हाथ बुलाते
टीले हरे कछारों में
देह हुई है महुवर जैसी
आज मधुर बौछारों में
इंद्रधनुष की छाँह, और
उद्गारे पिया असाढ़ में।

- कैलाश गौतम
26 अगस्त 2001

  

बादल बरसे री

रसीले बादल बरसे री

मन में कोई कोंधे आली।
याद-घटा घहराए काली।
ठिठुर गई मैं भींग गई
आली? भीतर से री।
बादल बरसे री
रसीले बादल बरसे री।

सभी ओर पानी ही पानी
धरती की काया पनियानी।
चाहें तक पानी हो आईं।
तरसे-तरसे री।
बादल बरसे री।
नशीले बादल बरसे री।

ये बरस हलके हो जाते।
इनके दुख कल के हो जाते।
अनभींगा-दुख भींगे बादल।
लगे ज़हर से री।
बादल बरसे री।
सजीले बादल बरसे री।

देख कि कैसे लूम रहे हैं।
गीली धरती चूम रहे हैं।
आलिंगन में बँधे जा रहे,
शैल-शिखर से री।
बादल बरसे री।
हठीले बादल बरसे री।

पहिले कभी न रोकी राहें।
कभी न फेंकी कपट-निगाहें।
आज ठहीले छल कर बैठे,
ढीठ निडर से री।
बादल बरसे री

- बृजमोहन सिंह ठाकुर
31 अगस्त 2005

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