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वर्षा महोत्सव

वर्षा मंगल
संकलन

मेघ आए

मेघ आए
बड़े बन ठन के सँवर के।

आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,
दरवाज़े खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के
मेघ आए
बडे बन-ठन के सँवर के।

पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए,
आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए,
बाँकी चितवन उठा, नदी ठिठकी घूँघट सरके
मेघ आए
बड़े बन-ठन के सँवर के।

बूढे पीपल ने आगे बढ़ जुहार की,
बरस बाद सुधि लीन्हीं
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की,
हरसाया ताल, लाया पानी परात भर के
मेघ आए
बडे बन-ठन के सँवर के।

क्षितिज-अटारी गहराई दामिनी दमकी,
'क्षमा करो गाँठ खुल गई अब भरम की',
बाँधा टूटा झर-झर मिलन के अश्रु ढरके
मेघ आए
बड़े बन-ठन के सँवर के।

-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

17 अगस्त 2005

  

बिरहा

नाराज़ समंदर शोर न कर
कुछ देर ठहर बेताब लहर
कहती है भला पगली ये घटा
बौछार कडी तन मन सिमटा
बूँदो का शब्द टप-टप-टप-टप
बेचैन करे हर एक आहट
गीली है डगर भीगी है चुनर
ढाता है जुलम सावन क्यों कर
सुलगी है मेरे मन में यों अगन
क्यों देर हुई आए न सजन

-राज जैन
20 अगस्त 2001

सावन के पलछिन

बिना तुम्हारे कैसे बीते
सावन के पलछिन।

तुमने ही पहले भेजी थी
प्रेम भरी पाती
ढ़ाई आख़र की सुलगाई
अंतर में बाती
गूँज रही हैं दसों दिशाएँ
उत्तर से दक्खिन।

बादल के हाथों सौंपी थी
सपनों-सी आशा
नदिया को पर्वत सिखलाता
जीवन-परिभाषा
मदमाते मौसम के द्वारे
सपने हुए नलिन।

पात-पात सिहरन होती है,
अब तो आहट से
भ्रमर ढूँढ़ता फिरता है निज
घर अकुलाहट से।
पीड़ा के पल कब कटते हैं
वे तो हैं अनगिन।

- मधु प्रसाद
17 अगस्त 2005

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