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वर्षा महोत्सव

वर्षा मंगल
संकलन

खेल

आषाढ़-अंत का आकाश
चाँद
लुकाछिपी का खेल खेलता हुआ
हमसे
लो देखो!
वहाँ है चाँद
पूर्व-क्षितिज के
सफेद नन्हें बादलों ने चुगली की है
भेद खुला है
तनिक लला गए हैं वे सफ़ेद नन्हें बादल
कि जैसे हँसी को मुँह बंद कर रोकने से
ललाया चेहरा हो समवयसी
बताता
कि यहीं, हाँ यहीं छिपा है बाल चंद्र

उन बालमेघों की जगह
यदि मेघकुल का होता कोई बुजुर्ग
छुपा लेता प्रगाढ़
चाँद को अपने अंक में
डर के रहस्य-सा धारण करता
थोड़ी देर

- ज्ञानेंद्रपति
15 सितंबर 2001

पानी बरसा
(अनूप शुक्ल के हाइकु)
18 अगस्त 2005

पानी बरसा
छत टपक गई
अरे बाप रे!

मिट्टी थी जो
कीचड़ बन गई
अरे बाप रे!

सड़कें जाम
स्कूल बंद हुए
मज़ा आ गया!

पानी भी क्या
हचक के बरसा
सब हैरान!
सब्ज़ी क़डकी
सब सामान सुने
दाम उछालें!
चूल्हा सिसका
कैसे आग जलेगी
लकड़ी गीली!
बाढ़ आ गई
सब कुछ चौपट
अब क्या होगा!
बाजार बंद
बोहनी के भी लाले
आगे क्या होगा
नेता जी बोले
जहाज़ मँगा लेव
दौरा कर लें!
टूटी छत है
खुली व्यवस्था-सी
कोई भी आए!
साहब बोला
ये तो होता ही है
छान पकौड़ी!
देहली बोली
मेरी जान मुंबई
फिर फँस ली!
 
नदी बावरी
तट को खा गई
बड़ी बुरी है
बरखा रानी
बहुत बरस लीं
अब तो बक्शो
  

वर्षा

नभ के नीले आँगन में
घन घोर घटा घिर आईं।
इस मर्त्य-लोक को देने
जीवन-संदेशा लाईं।

है परहित निरत सदा ये
मेघों की माल सजीली।
इस नीरस, शुष्क जगत को
करती हैं सरस, रसीली।

इससे निर्जीव जगत जब
सुंदर, नव जीवन पाता।
हरियाली मिस अपनी वह
हर्षोल्लास दिखलाता।

इस वसुधा के अँचल पर
अनुपम प्रभाव छा जाते।
इन हरी घास के तिनकों
में भी मोती उग आते।

इनका मृदु रोर श्रवण कर
कोकिल मधु-कण बरसाती।
तरु की डाली-डाली पर
कैसी शोभा सरसाती।

केकी निज नृत्य दिखाया,
करता फिरता रंगरेली।
पक्षी भी चहक-चहक कर
करते रहते अठखेली।

सर्वत्र अंधेरा छाया
कुछ देता है न दिखाई।
बस यहाँ-वहाँ जुगनू-की
देती कुछ चमक दिखाई।

पर ये जुगनू भी कैसे
लगते सुंदर, चमकीले।
जगमग करते रहते हैं
जग का ये मार्ग रंगीले।

सरिता-उर उमड पड़ा है
फिर से नव-जीवन पाकर।
निज हर्ष प्रदर्शित करता
उपकूलों से टकरा कर।

मृदु मंद समीकरण सर-सर
लेकर फुहार बहता है।
धीरे-धीरे जगती का
अँचल शीतल करता है।

- द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
18अगस्त2005