सावन के सुहाने मौसम में
विश्वजाल पर वर्षा ऋतु की कविताओं का नया संग्रह

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महेंद्र भटनागर की तीन वर्षा रचनाएँ
विपत्ति-ग्रस्त

बारिश
थमने का नाम नहीं लेती,
जल में डूबे
गाँवों-कस्बों को
थोड़ा भी आराम नहीं देती!
सचमुच,
इस बरस तो क़हर ही
टूट पड़ा है,
देवा, भौचक खामोश
खड़ा है!
ढह गया घरौंदा
छप्पर-टप्पर,
बस, असबाब पड़ा है
औंधा!
आटा-दाल गया सब बह,
देवा, भूखा रह!
इंधन गीला
नहीं जलेगा चूल्हा,
तैर रहा है चौका
रहा-सहा!
घन-घन करते
नभ में
वायुयान मँडराते गिद्धों जैसे!
शायद,
नेता/ मंत्री आए
करने चहलक़दमी,
उत्तर-दक्षिण पूरब-पश्चिम
छायी ग़मी-ग़मी!
अफ़सोस
कि
बारिश नहीं थमी!


अन्तर

बचपन में
हर बारिश में
कूद-कूद कर कैसा अलमस्त
नहाया हूँ!

चिल्ला-चिल्ला कर
कितने-कितने गीतों के
मुखड़े गाया हूँ!

जीवित
है वह सब
स्मरण-शक्ति में मेरी!
ज्यों-ज्यों बढ़ती उम्र गई
बारिश से घटता गया लगाव,
न वैसा उत्साह रहा न वैसा चाव,
तटस्थ रहा, निर्लिप्त रहा!

अति वर्षा से
कुछ चिन्तित आशंकित —
ढह जाए न
टपकता घर मेरा,
दूर बसा मज़दूरों का डेरा,
बह जाए न कहीं
निर्धन
मानवता का जीर्ण बसेरा!

मेघ-गीत

उमड़ते-गरजते चले आ रहे घन
घिरा व्योम सारा कि बहता प्रभंजन,

अंधेरी उभरती अवनि पर निशा-सी
घटाएँ सुहानी उड़ी दे निमंत्रण!

कि बरसो जलद रे जलन पर निरन्तर
तपी और झुलसी विजन भूमि दिन भर,

करो शांत प्रत्येक कण आज शीतल
हरी हो, भरी हो प्रकृति नव्य सुन्दर!

झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी पर, झड़ी हो
जगत-मंच पर सौम्य शोभा खड़ी हो,

गगन से झरो मेघ ओ! आज रिमझिम,
बरस लो सतत, मोतियों-सी लड़ी हो!

हवा के झकोरे उड़ा गंध-पानी
मिटा दी सभी उष्णता की निशानी,

नहाती दिवारें नयी औ' पुरानी
डगर में कहीं स्रोत चंचल रवानी!

कृषक ने पसीने बहाये नहीं थे,
नवल बीज भू पर उगाये नहीं थे,

सृजन-पंथ पर हल न आए अभी थे
खिले औ' पके फल न खाए कहीं थे!

दृगों को उठा कर, गगन में अड़ा कर
प्रतीक्षा तुम्हारी सतत लौ लगा कर—

हृदय से, श्रवण से, नयन से व तन से,
घिरो घन, उड़ो घन घुमड़कर जगत पर!

अजब हो छटा बिजलियाँ चमचमाएँ
अँधेरा सघन, लुप्त हों सब दिशाएँ

भरन पर, भरन पर सुना राग नूतन
नया प्रेम का मुक्‍त-संदेश छाये!

विजन शुष्क आँचल हरा हो, हरा हो,
जवानी भरी हो सुहागिन धरा हो,

चपलता बिछलती, सरलता शरमती,
नयन स्नेहमय ज्योति, जीवन भरा हो!

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प्रदीप मिश्र की दो वर्षा कविताएँ
मेघराज-१

गृहणियों ने घर के सामानों को
धूप दिखाकर जतना दिया है
छतों की मरम्मत पूरी हो चुकी है
नाले-नालियों की सफ़ाई का
टेंडर पास हो गया है
अधिकारी-नेता-क्लर्क सबने
अपना हिस्सा तय कर लिया है
और तुम हो कि
आने का नाम ही नहीं ले रहे हो

चक्कर क्या है मेघराज
कहीं सटोरियों का जादू
तुम पर भी तो नहीं चल गया
क्रिकेट से कम लोकप्रिय तुम भी नहीं हो

आओ मेघराज
तुम्हारे इंतज‍ार में बुढ़ा रही है धरती
खेतों में फसलों की मौत का मातम है
किसान कर्ज़ और भूख की भय से
आत्महत्या कर रहें हैं

आओ मेघराज इससे पहले कि
अकाल के गिद्ध बैठने लगें मुँडेर पर।



मेघराज-२

मेघराज तुम पहली बार आए थे
तब धरती जल रही थी विरह वेदना में
और तुम बरसे इतना झमाझम
कि उसकी कोख हरी हो गई

मेघराज तुम आए थे कालीदास के पास
तब वे बंजर ज़मीन पर कुदाल चला रहे थे
तुम्हारे बरसते ही उफन पड़ी उर्वरा
उन्होंने रचा इतना मनोरम प्रकृति

मेघराज तुम तब भी आए थे
जब जंगल में लगी थी आग
असफल हो गए थे मनुष्यों के सारे जुगाड़
जंगल के जीवन में मची हुई थी हाहाकार

और अपनी बूँदों से
पी गए थे तुम सारी आग

मेघराज हम उसी जंगल के जीव हैं
जब भी देखते हैं तुम्हारी तरफ़
हमारा जीवन हराभरा हो जाता है

आओ मेघराज
कि बहुत कम नमी बची है
हमारी आँखों में
हमारा सारा पानी पी गया सूरज

आओ मेघराज
नहीं तो हम आ जाएँगे तुम्हारे पास
उजड़ जाएगी तुम्हारी धरती की कोख।

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देवमणि पांडेय के चार वर्षा गीत
सावन के सुहाने मौसम में

खिलते हैं दिलों में फूल सनम सावन के सुहाने मौसम में।
होती है सभी से भूल सनम सावन के सुहाने मौसम में।

यह चाँद पुराना आशिक़ है
दिखता है कभी छिप जाता है
छेड़े है कभी ये बिजुरी को
बदरी से कभी बतियाता है
यह इश्क़ नहीं है फ़िज़ूल सनम सावन के सुहाने मौसम में।

बारिश की सुनी जब सरगोशी
बहके हैं क़दम पुरवाई के
बूँदों ने छुआ जब शाख़ों को
झोंके महके अमराई के
टूटे हैं सभी के उसूल सनम सावन के सुहाने मौसम में।

यादों का मिला जब सिरहाना
बोझिल पलकों के साए हैं
मीठी-सी हवा ने दस्तक दी
सजनी को लगा वो आए हैं
चुभते हैं जिया में शूल सनम सावन के सुहाने मौसम में।

झूम के बादल छाए हैं

तेरी चाहत, तेरी यादें, तेरी ख़ुशबू लाए हैं।
बरसों बाद हमारी छत पर झूम के बादल छाए हैं।

सावन का संदेस मिला जब
महक उठी पुरवाई
बूँदों ने छेड़ी है सरगम
रुत ने ली अंगड़ाई
मन के आँगन में यादों के महके महके साए हैं।

जब धानी चूनर लहराई
बाग़ में पड़ गए झूले
मन में फूल खिले कजरी के
तन खाए हिचकोले
बिजुरी के संग रास रचाते मेघ प्यार के आए हैं।

दिन में बारिश की छमछम है
रातों में तनहाई
किसने लूटा चैन दिलों का
किसने नींद चुराई
दिल जलता है लेकिन आँसू आँख भिगोने आए हैं।

बीते लम्हे

बीते लम्हे मुझे आए याद

बारिशों की वो रंगीन बूँदें
ख़्वाब में खोई मीठी-सी नींदें
दूर तक जुगनुओं की बरातें
रातरानी से महकी वो रातें
बीते लम्हे मुझे आए याद

चाँदनी का छतों पर उतरना
प्यार के आइनों में सँवरना
ओस का मुस्कराना, निखरना
फूल पर मोतियों सा बिखरना
बीते लम्हे मुझे आए याद

वो निगाहों के शिकवे गिले भी
चाहतों के हसीं सिलसिले भी
छू गईं फिर मुझे वो हवाएँ
जिनमें थीं ज़िन्दगी की अदाएँ
बीते लम्हे मुझे आए याद

 

बरसे बदरिया

बरसे बदरिया सावन की
रुत है सखी मनभावन की

बालों में सज गया फूलों का गजरा
नैनों से झाँक रहा प्रीतभरा कजरा
राह तकूँ मैं पिया आवन की
बरसे बदरिया सावन की
चमके बिजुरिया मोरी निंदिया उड़ाए
याद पिया की मोहे पल पल आए
मैं तो दीवानी हुई साजन की
बरसे बदरिया सावन की

महक रहा है सखी मन का अँगनवा
आएँगे घर मोरे आज सजनवा
पूरी होगी आस सुहागन की
बरसे बदरिया सावन की

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शशि पाधा का वर्षा गीत
मन एकाकी आज

चहुँ ओर प्रकृति का आह्लाद
फिर क्यों मन एकाकी आज?

प्राची का अरुणिम विहान
नव किसलय का हरित वितान
रुनझुन-रुनझुन वायु के स्वर
नीड़-नीड़ में मुखरित गान

लहर-लहर बिम्बित उन्माद
फिर क्यों मन एकाकी आज?

बदली की रिमझिम फुहार
कोयल गाये मेघ मल्हार
तितली का सतरंगी आँचल
भँवरों की मीठी मनुहार

झरनों का कल-कल निनाद
फिर क्यों मन एकाकी आज?

अंजलि में भर लूँ अनुराग
त्यागूँ मन की पीर- विराग
किरणों की लड़ियों की माला
पहनूँ, गाऊँ जीवन-राग

छिपा कहीं वेदन-अवसाद
फिर भी मन एकाकी आज।

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प्राण शर्मा की वर्षा ग़ज़ल
बदलियाँ

आस्मां में घुम घुमा कर आ गई हैं बदलियाँ
जल-तरंगों को बजाती छा गई हैं बदलियाँ

नाज़ और अन्दाज़ इनके झूमने के क्या कहें
कभी इतराई कभी बल खा गई हैं बदलियाँ

पेड़ों पे पिंगें चढ़ी हैं प्यार की मनुहार की
हर किशोरी के हृदय को भा गई हैं बदलियाँ

साथ उठी थी सभी मिलकर हवा के संग संग
राम जाने किस तरह टकरा गई हैं बदलियाँ

इक नज़ारा है नदी का जिस तरफ़ ही देखिए
पानियों को किस तरह बरसा रही हैं बदलियाँ

भीगते हैं बारिशों के पानियों में झूम कर
बाल-गोपालों को यों हर्षा गई हैं बदलियाँ

उठ रही हैं हर तरफ़ से सौंधी सौंधी ख़ुशबुएँ
बस्तियाँ जंगल सभी महका गई हैं बदलियाँ

याद आएगा बरसना 'प्राण' इनका देर तक
गीत रिमझिम के रसीले गा गई हैं बदलियाँ

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राजेन्द्र गौतम का वर्षा गीत
दूर पर अलकापुरी

मेघ गंभीर नदी पर यों झुका आकुल हुआ,
कूल मानो मिल गया उसकी असिंचित प्यास को
जब लगा नभ से बरसने प्यार ही जल धार में,
गंध व्याकुल कर गई मेरी विमूर्छित श्वास को

पंख लेकर कल्पना के मैं उड़ा उस लोक तक,
जब किसी बीते हुए आषाढ़ की सुधि आ गई
यक्षिणी की देह-वल्ली तृप्त हो रस धार से,
मेघ-से अपने पिया का गूढ़ चुंबन पा गई

एक विद्युत-सी छिटकती देह के आकाश से,
स्पर्श से जन्मे पुलक के झनझनाते राग-सी
बूँद भी प्यासी स्वयं थी पी रही थी रूप को
मेंह से जो और भड़की वह सुनहली आग थी

यक्ष शापित रामगिरि का पर उपेक्षित ही रहा,
झिलमिलाती स्वप्न-सी है दूर पर अलकापुरी
पोंछते हैं अश्रु ही उसकी प्रिया के चित्र को,
सिसकियों में डूब जाता गीत उसका आखिरी

फूल धर कर देहरी पर गिन रही जो रात-दिन,
आँख में तिरती रही वह शिशिर-मथिता पद्मिनी
मलिनवसना हो गई ज्यों चंद्रिका बिंबाधरा,
भटकती सुनसान में ज्यों एक क्षमा रागिनी

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स्वप्निल श्रीवास्तव की चार कविताएँ
बारिश-१

बारिश हो रही है
तुम बार-बार देखती हो आकाश
चमकती हुई बिजली को देखकर
चिहुँक उठती हो

जितने भूरे-भूरे काले-काले
बादल हैं आकाश में
ये समुन्दर का पानी पीकर
धरती के ऊपर हाथी की सूंड़
की तरह झुके हुए हैं
ख़ूब बारिश हो रही है
तुम्हें बारिश अच्छी लगती
है न प्रिये

वे तुम्हारे अच्छे दिन होते हैं
जब बारिश होती है
तुम्हें कालेज नहीं जाना पड़ता
तुम अपने खाली फ्रेम पर
काढ़ती हो स्वप्न
अनगिनत कल्पनाओं में
खो जाती हो

कितना कठिन आकाश है
तुम्हारे ऊपर
जिसमें जगमगा रहे हैं तारे
तुम्हारे हाथ इतने लम्बे नहीं
कि तुम उन्हें तोड़ सको

कुछ उमड़ते हुए बादल
मैंने तुम्हारी आँखों में
देखे हैं
जिस दिन वे बरसेंगे
सारी दुनिया भीग जाएगी

बारिश-२

ख़ूब बारिश होगी
फिर आएगी बाढ़
दर-बदर हो जाएँगे माल-मवेशी
घर की दीवारों में
पहुँच जाएगा पानी
क्या तुम्हें अच्छा लगेगा प्रिय

तुम जिस वर्ग की हो
वहाँ लगातार बारिश से
कोई फ़र्क नहीं पड़ता
लेकिन जिस दुनिया में हम
रहते हैं वहाँ
ज़्यादा बारिश का मतलब
अच्छी फसलों से हाथ
धो बैठना
मिट्टी के मकानों का लद्द-लद्द गिरना

तुमने गाँव नहीं देखे हैं
जिया नहीं है वहाँ का
कठिन जीवन
तुम क्या जानो
यह पानी का आवेग
हमारे जीवन से क्या-क्या
बहा ले जाता है

 

बारिश-३

एक दिन मैं तुम्हें
भीगता हुआ देखना चाहता हूँ
प्रिये

बरिश हो और हवा भी हो
झकझोर
तुम जंगल का रास्ता भूल कर
भीग रही हो

एक निचाट युवा पेड़ की तरह
तुम अकेले भीगो
मैं भटके हुए मेघ की तरह
तुम्हें देखूँ
तुम्हें पता भी न चले कि
मैं तुम्हें देख रहा हूँ

फूल की तरह खिलते हुए
तुम्हारे अंग-अंग को देखूँ
और मुझे पृथ्वी की याद आए

 

बारिश-४

कितना अच्छा लगता है
जब बारिश होती है
जंगल में
भीगती हुई वनस्पतियों से
उठती है ख़ुशबू
और जंगल के ऊपर
फैल जाती है

एक हिरन-शावक
छतनार पेड़ के नीचे
ठिठका हुआ खड़ा रहता है
क्या तुम उसे जानती हो प्रिय

वह मैं हूँ
दुनिया के कोलाहल से भागा हुआ
एक मनुष्य
पृथ्वी की हरियाली में
सुनने आया हूँ एक
आदिम संगीत

क्या तुम गाओगी प्रिय
इस घनी बारिश में

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कुमार मुकुल की कविता
बारिश

भादो की ढलती इस साँझ
लगातार हो रही है बारिश
हल्की
दीखती बमुश्किल
उसकी आवाज़ सुनने को
धीमा करता हूँ पंखा
पत्तों से, छतों से आ रही हैं
टपकती बड़ी बूँदों की
टप-चट-चुट की आवाज़ें
छुपे पक्षी निकल रहे हैं
अपने भारी-भीगते पंखों से
कौए भरते हाँफती उड़ान
उधर लौट रहा मैनाओं का झुंड
अपेक्षाकृत तेज़ी से
पंखों पर जम आती बूँदों को
झटकारता।

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मंगलेश डबराल की रचना
बारिश

खिड़की से अचानक बारिश आई
एक तेज़ बौछार ने मुझे बीच नींद से जगाया
दरवाज़े खटखटाए ख़ाली बर्तनों को बजाया
उसके फुर्तील्रे क़दम पूरे घर में फैल गए
वह काँपते हुए घर की नींव में धँसना चाहती थी
पुरानी तस्वीरों टूटे हुए छातों और बक्सों के भीतर
पहुँचना चाहती थी तहाए हुए कपड़ों को
बिखराना चाहती थी वह मेरे बचपन में बरसना
चाहती थी मुझे तरबतर करना चाहती थी
स्कूल जानेवाले रास्ते पर

बारिश में एक एक कर चेहरे भीगते थे
जो हमउम्र थे पता नहीं कहाँ तितरबितर हो गए थे
उनके नाम किसी और बारिश में पुँछ गए थे
भीगती हुई एक स्त्री आई जिसका चेहरा
बारिश की तरह था जिसके केशों में बारिश
छिपी होती थी जो फ़िर एक नदी बनकर
चली जाती थी इसी बारिश में एक दिन
मैं दूर तक भीगता हुआ गया इसी में कहीं लापता
हुआ भूल गया जो कुछ याद रखना था
इसी बारिश में कहीं रास्ता नहीं दिखाई दिया
इसी में बूढ़ा हुआ जीवन समाप्त होता हुआ दिखा

एक रात मैं घर लौटा जब बारिश थी पिता
इंतज़ार करते थे माँ व्याकुल थी बहनें दूर से एक साथ
दौड़ी चली आई थीं बारिश में हम सिमटकर
पास-पास बैठ गए हमने पुरानी तस्वीरें देखीं
जिन पर कालिख लगी थी शीशे टूटे थे बारिश
बार-बार उन चेहरों को बहाकर ले जाती थी
बारिश में हमारी जर्जरता अलग तरह की थी
पिता की बीमारी और माँ की झुर्रियाँ भी अनोखी थीं
हमने पुराने कमरों में झाँककर देखा दीवारें
साफ़ कीं जहाँ छत टपकती थी उसके नीचे बर्तन
रखे हमने धीमे धीमे बात की बारिश
हमारे हँसने और रोने को दबा देती थी
इतने घने बादलों के नीचे हम बार-बार
प्रसन्न्ता के किसी किनारे तक जाकर लौट आते थे
बारिश की बूँदें आकर लालटेन का काँच
चिटकाती थीं माँ बीच बीच में उठकर देखती थी
कहीं हम भीग तो नहीं रहे बारिश में।

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परवीन शाकिर की ग़ज़ल
बारिश हुई तो

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए
मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गए

बादल को क्या ख़बर कि बारिश की चाह में
कितने बुलन्द-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गए

जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए

लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गए

सूरज दिमाग़ लोग भी इब्लाग़-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़ के पेचाक हो गए

जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गए

साहिल पे जितने आबगुज़ीदा थे सब के सब
दरिया के रुख़ बदलते ही तैराक हो गए

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए
मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गए

बादल को क्या ख़बर कि बारिश की चाह में
कितने बुलन्द-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गए

जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए

लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गए

सूरज दिमाग़ लोग भी इब्लाग़-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़ के पेचाक हो गए

जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गए

साहिल पे जितने आबगुज़ीदा थे सब के सब
दरिया के रुख़ बदलते ही तैराक हो गए

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योगेंद्र कृष्ण की दो वर्षा रचनाएँ
एक

सागर की लहरों पर
छलांग लगाता है एक लड़का
और लहर-संगीत से खुलती है
सागर-तट पर एक खिड़की
खिड़की के सामने खड़ी एक लड़की
कमरे के भीतर
भीगती है सागर पर गिरती बूँदों से
सराबोर भीगने का
सुख उसका अपना है
सागर-तट तक तिरती
लड़की की आँखों में
आतुर एक सपना है...

दो

छपाक-छपाक
पानी में दौड़ते हैं
बारिश में भीगते बच्चे
बड़ों में भी
भीगने का आनंद
बाँटते हैं बच्चे...
सामने बुढ़िया की झोपड़ी है
झोपड़ी से दिखते हैं
बारिश में भीगते बच्चे
और झाँकता है ऊपर से
खुला आसमान
झांझर है झोपड़ी
चूता है रात भर
झर-झर पानी
खाट पर खड़े-पड़े
भीगती है बुढ़िया
रात-रात भर भीगने का
दुख कभी
बाँटती नहीं बुढ़िया
दुख उसका अपना है
हर बारिश में
दुख को सहलाता
जीवित एक सपना है...

1
चाँद हदियाबादी के कुछ बरसाती अशआर

यह अब के काली घटाओं के गहरे साये में
जो हम पे गुजरी है ऐ “चाँद ” हम समझते हैं

जब पुराने रास्तों पर से कभी ग़ुज़रे हैं हम
कतरा कतरा अश्क बन कर आँख से टपके हैं हम

तुन्द हवाओं तुफानों से दिल घबराता है
हल्की बारिश का भीगा पन अच्छा लगता है

अपने अश्कों से मैं सींचूँगा तेरे गुलशन के फूल
चार सु बू-ए-मोहब्बत को मैं फैला जाऊँगा

जो पूरी कायनात पे बरसाए चाँदनी
ऐसा भी किया के उसको दुआएँ न दीजिए

तेरी बातों की बारिश मैं भीग गया था
फिर जा कर तन मन का पौदा हरा हुआ था

तपते सहराओं में देखा है समुन्दर मैंने
मेरी आंखों में घटा बन के बरसता क्या है

ऐ घटा मुझको तू आँचल में छुपा कर ले जा
सुखा पत्ता हूँ मुझे साथ उड़ा कर ले जा

कदम कदम पे हमें मौसमों ने रोका था
हम अपनी आँख में बरसात किए फिरते रहे

1
द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़ल बरखा बहार
नग़्मगी नग़्मासरा है और नग़्मों में गुहार
तुम जो आओ तो मना लें हम भी ये बरखा बहार

‘पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ’
मन—पपीहा भी यही तो कह रहा तुझ को पुकार

पर्वतों पे रक़्स करते बादलों के कारवाँ
बज उठा है जलतरंग अब है फुहारों पर फुहार

पर्वतों से मिल गले रोये हैं खुल कर आज ये
इन भटकते बादलों का इस तरह निकला ग़ुबार

नद्दियों, नालों की सुन फ़िर आज है सरगम बजी
रुह का सहरा भिगो कर जाएगी बरखा बहार

बैठ कर इस पालकी में झूम उठा मेरा भी मन
झूमते ले जा रहे हैं याद के बादल—कहार

झूमती धरती ने ओढ़ा देख लो धानी लिबास
बाद मुद्दत के मिला बिरहन को है सब्रो—क़रार

बारिशों में भीगना इतना भी है आसाँ कहाँ
मुद्दतों तपती ज़मीं ने भी किया है इन्तज़ार

आसमाँ ! क्या अब तुझे भी लग गया बिरहा का रोग?
भेजता है आँसुओं की जो फुहारें बार—बार

तेरी आँखों से कभी पी थी जो इक बरसात में
मुद्दतें गुज़रीं मगर उतरा नहीं उसका ख़ुमार

वो फुहारों को न क्यों तेज़ाब की बूँदें कहें
उम्र भर है काटनी जिनको सज़ा—ए—इन्तज़ार

भीगना यादों की बारिश में तो नेमत है मगर
तेरी बिरहा की जलन है मेरे सीने पर सवार

इस भरी बरसात ने लूटा है जिसका आशियाँ
वो इसे महशर कहेगा, आप कहियेगा बहार.

२८ जुलाई २००८