अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर


         आई है बरसात

 
 
झूमे तन
गाये मन
लहराये जल वात
तपती दुपहर एक तरफ कर आई है बरसात!
ओ रामा होऽऽ!
ओ रामा होऽऽ!

आसमान के तन पर लिपटी
चितकबरी मृगछाला
राग मल्हार उठाये घूमे
धरती की मधुबाला

चंदा रूठा
दरपन टूटा
कौन हुआ है साथ!
बिना विदा ही लौट गयी लो तारों की बारात!!
ओ रामा होऽऽ!
ओ रामा होऽऽ!

हरी पहाड़ी घिरी हुई है
बादल से कुछ ऐसे
चूनर ओढ़े खिली अबोली
बाँहों में हो जैसे

दर दर घूमे
कभी न चूमे
किस्मत ने ये हाथ
फिर भी प्यार बाँटता फिरता बनजारा दिन रात!

ओ रामा होऽऽ!
ओ रामा होऽऽ!

- सुभाष वसिष्ठ
१ अगस्त २०२५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter