अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर


         एक उदासी तोडें

 
 
पनियारा हो दिन इतराया
कपसीला बादल करियाया
जाते जाते सूरज फिसला
मन ही मन फिर बतियाया
गीली बहती हुई हवा में
कुछ मंसूबे छोड़ें
एक उदासी तोड़ें

चौमासे की एक कड़ी है
कई दिनों से लगी झड़ी है
किरणों की आहट से निकली
थोड़ी सी ही धूप खड़ी है
आँगन की रस्सी पर लटके
कपड़े जरा निचोड़ें
एक उदासी तोड़ें

घर में अक्सर मेघ छकाते
गिरते थमते खूब सताते
कभी हँसाते कभी रुलाते
इधर बुलाते उधर भगाते
देखें इनकी धमा चौकड़ी
मन के गुब्बारे फोड़ें
एक उदासी तोड़ें

सड़कों पर कीचड़ की थाली
उछल उछल देती है गाली
आते जाते हुए वाहनों
से सुन लो छींटों की ताली
रेनकोट छतरी से आओ
कुछ तो नाता जोड़ें
एक उदासी तोड़ें

- आचार्य श्रीधर शील
१ अगस्त २०२५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter