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         मेंहदी मीनारों की

 
 
वर्षा हुई भीगी धरा
पर डर रहीं नीवें दीवारों की

आँधियों के
सिंधु में तो बादलों की फौज है
आम के डरते टिकोरे डर रहा हर हौज है
कड़क कर बिजली गिरी
पर बच गईं मेंहदी
मीनारों की

भाव जिंसों के
बहुत बाजार में उछले हुए हैं
पैंठ के जो आँकड़े वे जादुई पुतले हुए हैं
सभी सिक्के कष्ट में
पर मौज है डालर-
दीनारों की

भूख की
संवेदना को पेट केवल जानता है
समय वह जो बावला है कब उसे पहचानता है
अन्न है सामान भी
पर उठ रहीं चीखें
पुकारों की।

- शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
१ अगस्त २०२५

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