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         आ गए बादल

 
 
फिर सलोने
स्वप्न ले कर आ गये बादल
नभ पर छा गये बादल

अंकुरित सपने हुए हैं
महकती माटी
गन्ध आच्छादित हुई है
फूलों की घाटी

घन- घनन -घन मेघ गरजे
ज्यों बजे मादल

सूनी पड़ी अँगनाई थी
कुम्हला रहे थे मन
शिथिल सा होने लगा था
वल्लरी का तन

बह रहा था कहीं गुमसुम
आँख का काजल

टीन की छत पर टिपर-टिप
बूँदें जो बरसीं
लग रहा जैसे कहीं पर
पायलें छनकीं

टूटती साँसों को फिर
सरसा गये बादल

- मधु प्रधान
१ अगस्त २०२५

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