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         बुलाता पावसी मौसम

 
 
बुलाता पावसी मौसम
नहायें
मेह में चलकर !

टपकती चू रही है छत
सिमटती झोंपड़ी डरकर
यहाँ बरसात भी कैसे
लगाये मेह की झरझर
ठिठक कर रह गयीं बूँदें
देख टूटा
हुआ छप्पर !

जहाँ पावस भिगोकर दे
तरंगित देह को कंपन
वहाँ कैसे बचे कोई
छिपाकर मुक्ति के स्पंदन
करुण उत्साह बेबस है
व्यथा किससे
कहे जाकर !

जहाँ ऋतुएँ बुलाती हैं
उमंगों का नशा देकर
वहाँ रिमझिम फुहारें फिर
खड़ीं अंगडाइयाँ लेकर
मौसमों ने सदा तोड़े
अभावों के
शिला-पत्थर !

– जगदीश पंकज
१ अगस्त २०२५

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