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बरस बरस कर भी क्या
बरसे |
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अगर बरसना ही है
बादल, तो जाकर मरुथल पर बरसो,
जो नदिया पर बरस गए तो बरस बरस कर
भी क्या बरसे!
नदिया यदि
प्यासी नदिया हो बेशक उसकी प्यास बुझाना
किन्तु भरी-पूरी नदिया को छोड़ सहज मरुथल तक आना
देख रहा कब से आँखों में प्राण भरे बैठा है मरुथल
जोह रहा है बाट तुम्हारी
कब निकलोगे अपने घर से
तुमको प्यास
बुझानी है तो कंठ देखकर प्यास बुझाना
राजमार्ग का कंठ तृप्त है तुम उस ओर बाद में जाना
कई दिनों तक पगडंडी की प्यास अलक्षित रह जाती है
लगता है इन राजपथों की
संधि हो गई है अंबर से!
बादल का
अपना विवेक है, बादल की अपनी नादानी,
वो घट क्यों भरते हो बादल, जिस घट में पहले से पानी?
जिस जिस ने भी आस लगाई रोज़-रोज़ पाती पहुँचाई
कितने रुष्ट हो गए होंगे
सभी तुम्हारे इस उत्तर से!
- चित्रांश वाघमारे
१ अगस्त २०२५ |
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